बांध्यो जलनिधि,नीलनिधि .......
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आज मै सियासत पर नहीं लिख रहा.आज का विषय देश,प्रांत,शहर,गांव या मुहल्ले की समस्या पर भी नहीं है. आज मुझे कुछ सरस् लिखने का मन हुआ तो मैंने गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रामचरिय मानस के लिए लंकाकाण्ड में लिखे एक दोहे को अपना आधार बना लिया .दरअसल समुद्र मेरा प्रिय शब्द है. गोस्वामी तुलसीदास जी ने इसी समुद्र के लिए लंकापति रावण के मुंह से समुद्र के अधिकाँश नामो का उच्चारण कराने के साथ ही विस्मय   भाव को जो रंग दिया,वैसा मुझे हिंदी साहित्य में अन्यत्र कहीं और दिखाई नहीं दिया .इस दोहे में गोस्वामी तुलसी दास ने अपने काव्य कौशल का अदभुद परिचय दिया है,हालांकि वे पहले ही कह चुके हैं कि'कवित्त  विवेक एक नहीं मोरे ,सत्य कहूँ लिख कागद कोरे '.वे कहते हैं -'
बाँध्यो बननिधि नीरनिधि जलधि सिंधु बारीस। सत्य तोयनिधि कंपति उदधि पयोधि नदीस॥
.गोस्वामी जी जैसी उदारता हर कवि में होना चाहिए,मैंने ये उदारता गोस्वामी जी से उधार नहीं ली बल्कि चोरी कर ली है. मै कहने को गजलें लिखता हूँ लेकिन हकीकत ये है कि मै गजल की असंख्य बहरों में से एक को भी ढंग से नहीं जानता .गोस्वामी जी के इसी दोहे ने मुझसे मेरे प्रिय शब्द 'समुद्र ' पर एक कविता लिखवा ली है. इसमें समुद्र के वे सभी पर्यायवाची शामिल हो गए हैं जो गोस्वामी जी की सम्पत्ति हैं.
समुद्र से मेरे लागव के कारण ही मेरे प्रथम गजल संग्रह का नाम भी 'समंदर कुछ नहीं कहता किसी से 'था.इस संग्रह में समंदर को लेकर मैंने दो शेर गढ़े थे जो एक समय में खूब चर्चित हुए ;मैंने लिखा था-
समंदर कुछ नहीं कहता किसी से 
सुना करता है सबको खामोशी से 
बहुत खारा है दुनिया जानती है 
मगर बनते हैं बादल भी इसी से 
*समुद्र को लेकर लिखी इस कविता को कृपापूर्वक पढ़िए,गुनिये और मुझे अवगत कराइये कि क्या इसमें कवित्त का कोई कोई विवेक है ?कविता कुछ यूं हुई है -
' समुद्र '
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'जलनिधि' है अपार फिर भी प्यासा है 
यही 'सिंधु' की  परिचित परिभाषा है 
हैं असंख्य हीरे-मोती,बालू भी 
तृषित कंठ है ,सूखा है तालू भी 
कितनी बार पराजित होता आया 
किंचित फिर भी कभी नहीं शरमाया 
उठती  हैं उत्ताल तरंगे उर में 
गाता रहता है ये ऊंचे सुर में 
अकड़ छोड़ता नहीं 'नीरनिधि' पागल 
नमक भरा है इसका जैसे दृगजल  
कितनी नदियाँ हुईं विलीन 'जलधि' में 
कितनी नावें डूबीं इसी अवधि में 
कितनों को 'वारिधि' ने पार लगाया 
अद्भुद है समुद्र की अपनी माया 
क्यों अधीर,क्यों जल है इसका खारा ?
क्यों कहते हैं लोग इसे हत्यारा ?
इसे बाँध सीतापति हुए खरारी 
क्यों कहते इसकी लीला है न्यारी ?
इस अगाध को कई बार सोखा है 
इसकी नियति सिर्फ छल है,धोखा है 
छीन-छान कर वापस लौटाता है 
तटाधीन  लोगों को भरमाता है 
इसके बिना अधूरा है जग सारा 
मीठा हुआ न जल पर इसका खारा 
'उदधि' नाम है, जला सदा करता है 
तीर देखकर रातों को डरता है 
जाने क्यों इसको 'नदीस' कहते हैं 
इसके भीतर सरी- सर्प रहते हैं 
'बननिधि' का जीवन  अशांत होता है 
रातों में छिप-छिपकर ये रोता है 
'कम्पित हृदय' कांपता पीपल जैसे 
इसने झेले दुःख हैं कैसे-कैसे ?
धरा 'तोयनिधि' की है संग -सहेली
गहराई है इसकी एक पहेली 
धवल क्षीर  सा ये 'पयोधि' कहलाये 
सत्य ,अगाध सदा मन को बहलाये 
शायर   इसे 'समन्दर' कहकर हारे 
यह अनंत है ,पी लेता अंगारे 
सबने इसे सराहा,चाहा,गाया 
 है बारीस   तुम्हारी अद्भुद माया 
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@ राकेश अचल 
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