मथुरा || मेरा यह विषय राष्ट्रीय सुरक्षा नीति को लेकर है, देश पर जब जब कोई संकट आया, जनता और सरकार ने अपना स्वाभिमान और सुरक्षा के लिए सामंजस्य बिठाया! इसी वजह से हम देश के सामने आई हर चुनौती से मिलकर लड़े और जीत भी हासिल की! पिछले लगभग 3 महीनों से दिल्ली के चारों ओर अन्नदाता अपने अधिकारों के संघर्ष के लिए आया था,  सरकार से अपनी बात कहने और वार्ता अच्छे सकारात्मक दिशा में आगे भी बढ़ती दिख रही थी! यह हमारे देश का आंतरिक मामला था और संविधान में दिये अधिकार के अनुसार अन्नदाता को आवाज उठाने का अवसर भी मिला!‌ माना कि कानून गलत थे और यह भी किसी से नहीं छुपा है कि वैश्विक नीतियों के दवाब के चलते सरकारों ने किसान और मजदूर को आर्थिक असमानता की तरफ से धकेल दिया है! मेरा यह विचार किसी के पक्ष में नहीं है यहां सरकारों और किसान नेताओं से अपने आंतरिक मामलों में सुलह के लिए निवेदन है, क्योंकि समाधान एक पक्ष के बारे में ही सुनने से नहीं होगा या बड़ी बात हमको जानना चाहिए कि कहीं भी सुलह का रास्ता खुलता है तो दोनों पक्षों को कुछ बिंदुओं पर तो सहमति बनानी होगी या पीछे हटना पड़ेगा, जिससे अन्नदाता के मंच या दर्द का इस्तेमाल असामाजिक तत्व या राष्ट्र विरोधी ताकतें न करें, क्योंकि स्वाभाविक है जब भाई भाई में झगड़ा हो तो दुश्मन मौका ढूंढते हैं दोनों का विनाश करने के लिये, 26 जनवरी गणतंत्र दिवस पर लाल किले की घटना का चाहे जो भी जिम्मेदार रहा हो, लेकिन उससे विश्व पटल पर भारत की छवि को ठेस पहुंची! यहां हम सब भारतीय के लिए शर्मनाक था, हम यह चाहते हैं कि सरकार दोषियों पर अपने कानून के अनुसार कठोर कार्यवाही करे!
सरकार को अन्नदाता व मजदूर के आर्थिक असमानता में चले जाने के कारण उत्पन्न हुई वैचारिक क्रांति का आदर करते हुए उसको न्यूनतम समर्थन मूल्य पर फसल खरीद की कानूनी गारंटी दे देनी चाहिए और किसान नेताओं को चाहिए कि कानूनों में जो अब तक संशोधन और दो साल कानूनों पर रोक पर सरकार से श्वेत पत्र जारी कराने के पश्चात्  राष्ट्रीय सुरक्षा नीति का आदर करते हुये आन्दोलन समाप्ति की तरफ बढ़ जाना चाहिए, क्योंकि अन्नदाता के मंच का प्रयोग राष्ट्र विरोधी ताकतें न करें!
महात्मा गांधी जी ने भी चौरी चौरा कांड के बाद असहयोग आन्दोलन वापिस लिया था व अन्य काफी उदाहरण हैं! सरकारें गम्भीरता से किसान के मु्द्दों को लेकर समाधान निकाल‌ पाती तो हालात इतने खराब नहीं होते , जब साढ़े तीन लाख से ज्यादा किसान आत्महत्या नहीं करते और किसान आर्थिक असमानता का शिकार नहीं होता! मेरा मानना है कि 1995 में विश्व व्यापार संगठन की स्थापना के बाद भारत के बाजार पर दुनिया की नजर रही है,‌ जहां सरकार ने वैश्वीकरण के नाम पर भारत के किसान मजदूर के हितों का उचित ध्यान नहीं रखा! सुप्रीम कोर्ट भी किसानों के हालातों को देखकर फटकार लगाकर नाराजगी जता चुका है! स्वामीनाथन आयोग ने जब रिपोर्ट किसानों के हालात पर अध्ययन करके तैयार की थी तो सरकारें खुद अपने ही कमेटी द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट को लागू करने में असमर्थ क्यों रही और चुनावी घोषणा पत्र का हिस्सा बनाकर ही वर्तमान सरकार 2014 में सत्ता में आई! गन्ना एक्ट के मुताबिक 14 दिन के अंदर भुगतान हो जाना चाहिए लेकिन नहीं होता! यह सारी बातें किसान के प्रति सरकारों का आर्थिक भेदभाव दिखाती हैं! जब इस देश में सभी के आयोग हैं तो किसान आयोग क्यों नहीं? जिससे पूर्ण चर्चा करके यह कृषि कानून बनाए जाते तो विवादित होने की संभावना कम थी, वह भी जब लाये ग्रे, तब वैश्विक महामारी के कारण खुलकर संसद में चर्चा नहीं हो सकती थी!
अगर सरकार और किसान नेताओं के मध्य वार्ता टूटती है, 200 से ज्यादा अन्नदाता शहीद हो जाने के बाद , जनांदोलन बनने के बाद #अन्नदाता की आवाज दबी तो दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक राष्ट्र के लिए हित में नहीं होगा! अतः सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देकर कानूनों पर कम से कम दो साल रोक लगाकर उसी दौरान कृषि कानूनों में सकारात्मक संबोधन कर किसान का दिल जीतने का कार्य करें! सरकार जनता के समर्थन से बनती है तो उसके हितों का ध्यान रखना भी सरकार की ही जिम्मेदारी है!
जय हिंद जय भारत 
जिला ब्यूरो चीफ राजकुमार गुप्ता

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