ग्वालियर ||  आजादी से पहले सन 1945 में विश्व के 8 देशों में लोकतांत्रिक व्यवस्था थी। सन 1947 में हमें आजादी मिली और 26 जनवरी 1948 को हमने अपने देश को लोकतांत्रिक देश घोषित किया। जिसे पूर्णत: 1950 में लागू कर दिया गया। और  हमारी पहचान विश्व के एक बड़े लोकतांत्रिक देश के रूप में हो गई जनवाद की भावना को समेटे हुए इस पहचान को बनाए रखने के लिए हमने और उस समय की सरकारों ने भरकर प्रयास किए। और हम उसमें कामयाब भी रहे लेकिन अब यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि अब हम अपनी इस पहचान को विश्व पटल पर खोते चले जा रहे हैं। और यह तब घटित हो रहा है जब विश्व के 87 के करीब देश लोकतांत्रिक जनवादी विचारधारा पर आधारित है।  पर वर्तमान में हालात इसके उलट हैं पिछले 5 वर्षों से देश में जो घटा और घट रहा है ।उससे हमारी लोकतांत्रिक पहचान गुम होती जा रही है ऐसा प्रतीत होता है। पिछले 5 बरस में देश में जो घटा है वह इस तरफ इशारा करते हैं कि अब हम लोकतांत्रिक जनवादी प्रणाली को नष्ट करते चले जा रहे हैं।          देश में हुए राजनैतिक सामाजिक परिवर्तन इस बात की ओर साफ इशारा करते हैं अगर ऐसी ही स्थिति रही तो वह दिन भी दूर नहीं जब पूर्णत:  हम लोकतंत्र खो देंगे और यह केवल किताबी बातें  बनकर रह जाएगी ।और हम एक संकीर्ण मानसिकता गुस्सैल दिमाग वाले संकीर्ण देश के रूप में अपनी पहचान बना लेंगे।           लोकतंत्र मतलब आजादी अपनी बात रखने का हक अपने अधिकार के लिए लड़ने का हक सच के लिए लड़ने का हक पर अब उसी हक पर हमला हुआ है। और हो रहा है ।इसके चलते सबसे पहले हमसे हमारी सवाल करने का हक छीना गया हमसे हमारी पहचान छीनी जा रही है। और वह पहचान है राष्ट्रीयता की राष्ट्रवाद की यदि हम सवाल करते हैं तो हम राष्ट्रवादी नहीं हैं ऐसा ही कुछ अब देखने को मिल रहा है। जो पिछले पांच-छह सालों में बड़ी तेजी से बढ़ा है जीएसटी, नोटबंदी, एनआरसीसी ,सी ए ए और अब किसान आंदोलन इनमें अपने हक अधिकार की बात करने वाला लड़ने वाला राष्ट्रवादी है या नहीं अब यह सरकार तय करेगी या तय करेगी सरकार की हां में हां मिलाने वाली मीडिया। भारतीय लोकतंत्र में यह पहली बार हुआ कि संसद में जनता के जनप्रतिनिधियों से जनता की बात रखने की आजादी छीनी गई यह तो एक बड़ा उदाहरण है। लेकिन हमने आपने सब ने देखा तमाम छोटे-बड़े आंदोलन इन पांच छह वर्षो में हुए सब में हमसे हमारी पहचान छीनी गई और हमारे राष्ट्रवाद पर उंगली उठाई गई अब ऐसा ही कुछ इस किसान आंदोलन में भी घटित हो रहा है पिछले 70 दिन के करीब हो गए इस ठंड में किसान दिल्ली के पांच बॉर्डर  पर जमा है जबरन लादे गए कृषक बलों के खिलाफ आंदोलन में 100 से भी ज्यादा किसानों की जाने चली गई बावजूद इसके भी उन पर तोहमत लगाने का कार्य सरकार और उसकी चाटुकार मीडिया ने किया ।जिससे साफ जाहिर होता है कि हम अपने लोकतांत्रिक जनवादी अधिकारों को खोते जा रहे हैं यदि ऐसा ही चलता रहा तो कहीं गुम ना हो जाए लोकतंत्र इस और गौर करने की जरूरत है। नरेंद्र सिकरवार

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