माघ मेला में गंगा तट पर तीर्थ पुरोहितों (पंडा) के लगने वाले शिविरों का अपना इतिहास है। प्रतीक चिह्नों से पहचाने जाने इन शिविरों में उत्तर प्रदेश के अतिरिक्त अन्य प्रदेशों के कल्पवासी पूरे एक माह तक कल्पवास करते हैं। कल्पवासी किस शिविर में रहेगा उसका लेखा जोखा तीर्थ पुरोहितों के पास रहता है। इन तीर्थ पुरोहितों का एक झंडा और निशान होता है। विभिन्न स्थानों से आने वाले श्रद्धालु  झंडों एवं निशान से ही वंश परंपरा के अनुसार अपने पुरोहित की पहचान करते हैं। ऐसा इसलिए कि इन निशान में ही तीर्थ पुरोहित की पृष्ठभूमि का इतिहास समाहित रहता है। तीर्थपुरोहितों का दावा है कि मध्यकाल में भी उनकी महत्ता थी। अलाउद्दीन खिलजी का एक माफीनामा दारागंज के तीर्थ पुरोहित पंच भैया के यहां आज भी रखा है।

पन्ने लाल तिरंगा शिविर सबसे बड़ा

तीर्थ पुरोहित राजीव भारद्वाज बताते हैं कि झंडे और निशान उनकी पहचान हैं। प्रयागराज में 1484 तीर्थपुरोहित हुआ करते थे। अब समय के साथ इनकी संख्या कम हुई है। इस समय 500 तीर्थपुरोहित हैं। माघमेले में पंडों के सौ से अधिक शिविर लगते हैं। सबसे बड़ा शिविर पन्ने लाल तिरंगा का लगता है। इस शिविर में करीब पांच सौ अधिक कल्पवासी एक माह तक रहते हैं। इनमें पूर्वांचल के लोगों की संख्या सबसे ज्यादा रहती है। दुर्गा शिविर में बहुत कल्पवासी रहते हैं। इस शिविर का निशान श्री नारियल झंडा है। राजीव भारद्वाज बताते हैं कि स्वतंत्रता संग्राम सेनानी बंसत लाल शर्मा प्रयागराज के पहले चेयरमैन (अब मेयर) हुआ करते थे। अब उनके नाम पर माघमेला में शिविर लगता है। इस शिविर का निशान धनुष बाण है। ऐसे ही महावीर राजेश्वर प्रसाद का शिविर बहुत बड़ा लगता है। इसका निशान सूरज के आकार का झंडा है।

भगवान राम के तीर्थपुरोहित के वंशज भी

तीर्थपुरोहितों के संगठन के नेता मधु चकहा बताते हैं कि लंका पर विजय प्राप्त करने के बाद भगवान राम प्रयाग आए थे। प्रयाग में जिस पुरोहित ने उनको पूजा कराई थी उनके वंशज आज भी यहां हैं। यह पुरोहित कवीरापुर, बट्टटपुर अयोध्या के निवासी हैं। ऐसे ही राजपूत युग के बाद यवन काल, गुलाम वंश, खिलजी साम्राज्य के समय के तीर्थ पुरोहितों की परंपरा आज भी कायम है। चकहा बताते हैं कि अकबर ने तब प्रयाग के तीर्थ पुरोहित चंद्रभान और किशनराम को ढाई सौ बीघा भूमि माघ मेला लगाने को दी थी। यह भूमि मुफ्त में दी थी। अकबर का यह आदेश तीर्थ पुरोहितों के पास आज भी रखा है। झांसी की रानी लक्ष्मी बाई कब प्रयाग आई थी यह भी बहियों मे दर्ज है।

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