प्रयागराज के पंडों के खाता-बही में दर्ज इबारत सैकड़ों साल बाद भी पढऩे योग्य बनी हुई है। तीर्थ पुरोहित यानी पंडे वंशावली के दस्तावेजों को सुरक्षित रखने के साथ लिखावट का भी बहुत ध्यान रखते थे। आज भी पंडे खाता-बही में लिखने के लिए स्याही का ही प्रयोग करते हैं। यह स्याही काली रहती है। इसके लिए जी-निब प्रयुक्त होती है। कुछ पंडे स्याही वाली पेन का प्रयोग करते हैं। युवा तीर्थ पुरोहित भी इस काम में आधुनिक संसाधनों का प्रयोग नहीं करते हैं। मोबाइल या कंप्यूटर में वे तीर्थ यात्रियों के नाम पता नहीं रखते हैं। उनका मानना है कि हाथ से लिखे दस्तावेज ज्यादा सुरक्षित हैं।
तीर्थ पुरोहित राजीव भारद्वाज बताते हैं कि बही खाते पर लिखने के लिए उच्चकोटि की स्याही का प्रयोग किया जाता है। पहले यह स्याही वे लोग खुद बनाते थे। अब ऐसा नहीं है। पहले खाता-बही मोर पंख से लिखा जाता था। बाद में नरकट से लिखा जाने लगा। समय परिवर्तित हुआ तो जी-निब वाले होल्डर का प्रयोग किया गया। अब अच्छी स्याही वाले पेन से बही-खाता में तीर्थ यात्रियों के नाम पते दर्ज हो रहे हैं। हालांकि मूल बहियों को लिखने में आज भी कुछ तीर्थ पुरोहित जी-निब का इस्तेमाल करते हैं। भारद्वाज बताते हैं कि जी-निब का प्रयोग टिकाऊ होता है। लिखने में काली स्याही का अधिकांश तीर्थ पुरोहित प्रयोग करते हैं। खाता-बही में यजमानों का वंशवार विवरण वर्णमाला के व्यवस्थित क्रम में लिखा जाता है। इससे तीर्थ यात्रियों का विवरण खोजने में आसानी होती है। सुरक्षित बही-खाता का कवर मोटे कागज का होता है। जिससे वह पानी आदि से खराब नही होने पाए। इस कवर को समय-समय पर बदला जाता है।
लाल रंग पर कीटाणुओं का असर नहीं
प्रयागवाल सभा के सदस्य राजीव भारद्वाज बताते हैं कि बही खाता का कवर लाल रंग का बनाया जाता है। बही को मोड़कर लाल धागे से बांध दिया जाता है। धागा मजबूत रखा जाता है। लाल रंग पर कीटाणु हमला नहीं करते हैं इसलिए इस रंग का प्रयोग किया जाता है। बहियों की तीन कापी बनाई जाती है। एक तीर्थ स्थल पर रहती है। एक घर में सुरक्षित रहती है। तीसरी घर पर आने वाले यजमानों को दिखाई जाती है। तीर्थ स्थल पर बही खाते को लोहे के बक्से में रखा जाता है। भारद्वाज बताते हैं कि वे लोग संपर्क में आने वाले तीर्थ यात्रियों का नाम पता पहले एक रजिस्टर में दर्ज करते हैं। उसके बाद इसे मूल बही में उतारा जाता है।
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