गढ़वाल और कुमाऊ की इष्टदेवी होने के कारण नन्दादेवी को धियान यानि बहिन कहकर सम्बोधित किया जाता है। राजा की मनौती पूर्ण होने और उनके द्वारा नंदा भगवती की जात में शामिल होने पर नंदा भगवती को राजराजेश्वरी कहते है, नन्दादेवी को पार्वती की बहन के रूप में देखा जाता है परन्तु कहीं-कहीं नन्दादेवी को ही पार्वती का रूप माना गया है। नन्दा के अनेक नामों में प्रमुख हैं शिवा, सुनन्दा, शुभानन्दा, नन्दिनी। पूरे उत्तराँचल में समान रूप से पूजे जाने के कारण नन्दादेवी के समस्त प्रदेश में धार्मिक एकता के सूत्र के रूप में देखा गया है। रूपकुण्ड के नरकंकाल, बगुवावासा में स्थित आठवीं सदी की सिद्ध विनायक भगवान गणेश की काले पत्थर की मूर्ति आदि इस यात्रा की ऐतिहासिकता को सिद्ध करते हैं, साथ ही गढ़वाल के परंपरागत नन्दा जागरी (नन्दादेवी की गाथा गाने वाले) भी इस यात्रा की कहानी को बयाँ करते हैं। नन्दादेवी से जुडी जात (यात्रा) दो प्रकार की हैं। वार्षिक जात और राजजात। वार्षिक जात प्रतिवर्ष अगस्त-सितम्बर मॉह में होती है। जो कुरूड़ के नन्दा मन्दिर से शुरू होकर वेदनी कुण्ड तक जाती है और फिर लौट आती है, लेकिन राजजात 12 वर्ष या उससे अधिक समयांतराल में कुरुड़ से ही शुरू होती है। मान्यता के अनुसार देवी की यह ऐतिहासिक यात्रा चमोली के कुरूड़ से शुरू होती है कुरूड़ के मन्दिर से भी दशोली और बधॉण की डोलियाँ राजजात के लिए निकलती हैं। इस यात्रा में लगभग २५० किलोमीटर की दूरी कुरुड़ से होमकुण्ड तक पैदल करनी पड़ती है। इस दौरान घने जंगलों पथरीले मार्गों, दुर्गम चोटियों और बर्फीले पहाड़ों को पार करना पड़ता है। जात संपन्न होने के बाद माँ नंदा राज राजेश्वरी की डोली अपने ननिहाल देवराड़ा में छः माह निवास करती है और फिर विभिन्न पड़ावों से हो कर कुरुड़ पहुँचती है,
देव भूमि हिन्दू संगठन के संस्थापक श्री तुला राम देवराड़ी, वरिष्ठ अध्यक्ष श्री लक्ष्मी प्रसाद मेंदोली जी के साथ 13दिसंबर 2020 को सिद्ध पीठ कुरुड़ पहुंच कर नंदा राज राजेश्वरी के दर्शन किये और देवी भगवती के महत्व मंदिर के पुजारी एवं संगठन के सचिव श्री नरेश गौड़ जी से जाना।
हिन्दीसंवाद के लिए
देव भूमि हिन्दू संगठन के संस्थापक श्री तुला राम देवराड़ी,
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