*संक्रमण प्रतिरोधक संस्कृति*
भारतीय संस्कृति में अनादि काल से संक्रमण से बचने के लिए कुछ सूत्र प्रतिपादित हैं जिसे अब पूरी दुनिया अपना रही है -
*घ्राणास्ये वाससाच्छाद्य मलमूत्रं त्यजेत् बुध:।*(वाधूलस्मृति 9)
*नियम्य प्रयतो वाचं संवीताङ्गोऽवगुण्ठित:।*(मनुस्मृति 4/49))
नाक, मुंह तथा सिर को ढ़ककर, मौन रहकर मल मूत्र का त्याग करना चाहिए।
*तथा न अन्यधृतं धार्यम्* (महाभारत अनु.104/86)
दूसरों के पहने कपड़े नहीं पहनने चाहिए।
*स्नानाचारविहीनस्य सर्वा:स्यु: निष्फला: क्रिया:*(वाधूलस्मृति 69)
स्नान और शुद्ध आचार के बिना सभी कार्य निष्फल हो जाते हैं, अतः: सभी कार्य स्नान करके शुद्ध होकर ही करना चाहिए।
*लवणं व्यञ्जनं चैव घृतं तैलं तथैव च। लेह्यं पेयं च विविधं हस्तदत्तं न भक्षयेत्।*
(धर्मसिंधु 3 पू.आह्निक)
नमक, घी, तैल, कोई भी व्यंजन, चाटने योग्य एवं पेय पदार्थ यदि हाथ से परोसे गए हों तो न खायें, परोसने के पात्र आदि से परोसने पर ही ग्राह्य हैं।
*न अप्रक्षालितं पूर्वधृतं वसनं बिभृयात्।*(विष्णुस्मृति 64)
पहने हुए वस्त्र को बिना धोए पुनः न पहनें। पहना हुआ वस्त्र धोकर ही पुनः पहनें।
*न चैव आर्द्राणि वासांसि नित्यं सेवेत मानव:।*(महाभारत अनु.104/52)
*न आर्द्रं परिदधीत*(गोभिलगृह्यसूत्र 3/5/24)
गीले कपड़े नहीं पहनने चाहिए।
*चिताधूमसेवने सर्वे वर्णा: स्नानम् आचरेयु:। वमने श्मश्रुकर्मणि कृते च*(विष्णुस्मृति 22)
श्मशान में जाने पर, वमन होने/करने पर, हजामत बनवाने पर स्नान करके शुद्ध होना चाहिए।
*हस्तपादे मुखे चैव पञ्चार्द्रो भोजनं चरेत्।*(पद्मपुराण सृष्टि 51/88)
*नाप्रक्षालित पाणिपादौ भुञ्जीत।*(सु.चि.24/98)
हाथ, पैर और मुंह धोकर भोजन करना चाहिए।
*अपमृज्यान्न च स्नातो गात्राण्यम्बरपाणिभि:।*(मार्कण्डेय पुराण 34/52)
स्नान करने के बाद अपने हाथों से या स्नान के समय पहने भीगे कपड़ों से शरीर को नहीं पोंछना चाहिए, अर्थात् किसी सूखे कपड़े (तौलिए) से ही पोंछना चाहिए।
*न वार्यञ्जलिना पिबेत्।*( मनुस्मृति 4/63)
*नाञ्जलिपुटेनाप: पिबेत्।*(सु.चि.24/98)
अंजलि से जल नहीं पीना चाहिए, किसी पात्र (गिलास) से जल पीयें।
*न धारयेत् परस्यैवं स्नानवस्त्रं कदाचन।*(पद्मपुराण सृष्टि 51/86)
दूसरों के स्नान के वस्त्र (तौलिए इत्यादि) प्रयोग में न लें।
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