'हमार गाँव' से एक टुकड़ा
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बिसनाथ बाबा के एकही लुफुत रहे कि ऊ खैनी (तम्बाकू) खात रहन। ऊ खैनी के चुनौटी आ डिबिया राखत रहन। चुनौटी में चूना रहत रहे आ डिबिया में खैनी। ऊ कहसु कि खैनी बनावे आ खाए के तरीका सबके ना आवे। ऊ खैनी परेम से आ देर से बनावसु। कहसु कि अस्सी चुटकी आ नब्बे ताल प खैनी बनेले। खैनी के लेके ऊ कगो खिस्सा सुनावसु। कहसु कि खैनी चेट में रहे त भूत-पिसाच से बचल जा सकेला। ऊ कहसु कि उन्हुका से क-क बार बरहम आ भूत-पिसाच खेत-बधार में रात-बिरात खैनी माँग के खइले बाड़न स। ऊ खैनी खियावे के बदला में क-क बार जान बचवले बाड़न स चोर-चिकार से। ऊ कुतलूपुर आ सीवान के बगइचा में आम के अगोरिया करे के दौरान भूत-परेत से यारी क लेत रहन। उन्हुका से भूत बतियावत रहन स तरह-तरह से। ऊ कहसु कि एगो भूत उन्हुका बाबूजी शिवपूजन पाँड़े के जोड़ा-पारी रहे। जोड़ा-पारी माने समउरिया। समउरिया माने समवयस्क, एक साथ के। ऊ भूत कुतलूपुर करियवा आम के फेड़ त बारह बजे के बाद अचानक परगट होखे। ओकर बेरा बन्हाइल रहे, जइसे मियादी बुखार पकड़ेला। दिन भर बुखार ना रही, आ अचानक रात में चढ़े लागी, त पटक के बिछौना प गिरा दी। ओही तरह से भूत जब रात में बारह बजे से डेढ़ बजे के बीच परगट होखे त हवा-बतास तेज-तेज चले लागत रहे। करियवा आम के फेड़ के डाढ़ हिले लागत रही स। ओही में सियार आ कुकुर के रोवे के आवाज आवे करँवटा के खेत से भा दक्खिन टोला के बड़का गड़हा आ पुल के ओर से। किछु देर के बाद भूत के आवाज सुनाई पड़े। आवाज में ओज रहत रहे। ऊ कहे कि ‘ए सिपूजन (शिवपूजन) के बेटा, तनी खैनी (तम्बाकू) खियावऽ!’ बिसनाथ बाबा खूब लगन आ मन से ओकरा के खैनी मल-मल के खियावसु। ई मल अकेले रही त हिन्दी में एकर अरथ हो जाई मल-मूत्र वाला मल। जब ई जोड़ा (डबल) हो जाई याने जुगम(युग्म)बन जाई, त ढाका के मलमल बन जाई। ह त भूत जब बोले त लागे केहू जोर से कान में मुँह सटा के बोलत बा। ऊ भूत कबो स्थूल देह में ना दिखाई पड़त रहे। बिसनाथ बाबा के कबो-कबो लागे कि ई भूत के आवाज उन्हुका अंदरे से आवत बा, घुप्प अन्हरिया आ कुच-कुच करिया जेठ-आषाढ़ के रात में ऊ सोचसु कि कहीं बीराना आ सन्नाटा के चलते त ई सब नइखे होत! भूत के लेके हमरा एगो भोजपुरी के कवि-ललित निबंधकार अंबिका दत्त त्रिपाठी ‘व्यास’ के लिखल बात मन परेला। ऊ डुमराँव के रहलन, जेहवाँ भोजपुरी के आ हिन्दी के बड़-बड़ पुरुख लेखक पैदा भइल बा लोग। व्यास जी लिखले बाड़न कि ‘तोहरा मन के जेवना कोना में डर बा, समझ ल भूत के ओहिजे घर बा।’ खएर, बिसनाथ बाबा बिल्कुल निडर आदमी रहलन। उन्हुकर जेतना खिस्सा (किस्सा) भूत आ बरहम लोग से जुड़ल रहे, ओतने चोर-चिकार से। ऊ एकबेर बाण (सारंगा) के खेत में तीन गो चोर के अकेले सरेन्डर करवा देले रहन। ओह साल जब के घटना ह, बाण में रहर (अरहर) दलहनी फसल अमान लागल रहे। रहर लथर-लथर के फरल रहे, आ पाक चलल रहे। चइत के अन्हरिया रहे। बाबा देखलन कि किछु आदमी खेत में घूसल बाड़न, रहर काटे खातिर। बाबा ओह घरी चुप लगा गइलन आ एगो कोना प रहरी का आड़ में ठाढ़ हो गइलन। जब चोर रहर के बोझा उठाके चलल लोग, त बाबा सबसे पीछे वाला चोर के पीठ प भाला के नोक हलुके छुअवलन। कहलन कि आगे वालन से कह दे बोझा फेंक द स ना त तोरा के मार देब। बाद में पता चलल कि तीनों चोर बाबा के जान-पहचान के रहलन सन। बगल के गाँव भरौली के। बाबा से जब बाद में लोग पूछे कि चोरवन के नाव बताईं, त बाबा चुप लगा जासु। बाद में बहुत दिन रिगिर कइला प बाबा चोरवन के ना, ओहनी के गाँव के नाव बतवले रहलन। त बिसनाथ बाबा गहिर-गंभीर ओतने रहलन। जब ले जियलन अपना अंदाज में जियलन, स्वाभिमान के साथ। ऊ भोजपुरिया स्वाभिमान के खाँटी प्रतीक रहलन। ऊ हरमेस कान्ह प पोरसा भर के लउर लेके खेत-बधार जात रहन। ऊ लउर-लाठी के सवखीन रहलन। दुआर-दलान के कोना में एक से बढ़ के एक तेल पियावल आ आग प के सेंकल लाठी रखले रहन। उन्हुका ना रहला प सब लउर-लाठी में घुन लाग गइले स। उन्हुकर पहचान लउर-लाठी के एगो निसान तक नइखे बाँचल घर में। अब त हमरा परिवार में लोग एतना पढ़-लिख के नफासत-नजाकत से भर गइल कि लउर-लाठी हाथ में लेके चले में संकोच करी। केतना नवही त अब जनबे ना करिहें कि लउर का कहाला आ पोरसा भर का होला। हमरा एहिजा बिसनाथ बाबा के लेके एगो भोजपुरी के पुरान कवि भानु जी के कविता ‘मरद भोजपुरिया’ इयाद आवत बा-
झूठ ना बखाने जाने, छूत-छात माने-जाने
माने-जाने सबके, ना जाने जी-हजुरिया
धुरिया चढ़ावे जाने, पीठ ना देखावे जाने
दीठ ना लगावे जाने आन के बहुरिया
आन ना लड़ावे जाने, जान के ना जान जाने
चले के उतान जाने तान के लउरिया।
बानी मर्दानी जाने चाल मस्तानी ‘भानु’
हो ला एक पानी के मरद भोजपुरिया।
ठाट ना बनावे जाने, काट ना कटावे जाने
हाथ ना हिलावे, चमकावे ना अँगुरिया
बात ना बनावे जाने, बात साफ-साफ जाने
फट देना राँड ना त भर हाथ चुरिया।
हठ में हमीर, महाबीर बीर लठ में जे,
बान्हे लट-पट कनपटी ले पगरिया
डाँटी के बनल ‘भानु’ माटी के कसल उहे,
खाँटी ह जवान उमजल भोजपुरिया।।
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'हमार गाँव' भोजपुरी गद्य में लिखी स्मृति आख्यान विधा की एक पुस्तक है | इसमें लेखक चंद्रेश्वर ने अपने गाँव के सामाजिक-पारिवारिक जीवन यथार्थ की सच्चाइयों को केन्द्र में रखकर यह पुस्तक लिखी है | इस पुस्तक में गद्य की लगभग सारी सृजनात्मक विधाओं का आस्वाद मिलता है | यह भोजपुरी गद्य की एक अनूठी गद्यात्मक कृति है | इसमें लेखक ने अपने गाँव के पचास -पचपन साल पहले के सामाजिक यथार्थ और इधर आए नये बदलावों को भी शिद्दत से रेखांकित करता है | कृषि संस्कृति के क्षरण के साथ वह जाति व्यवस्था के टूटते- बदलते संदर्भों को भी प्रस्तुत करता है | किस तरह कई पुरानी मज़बूत परंपराएँ आधुनिकता की चमक-दमक में विलोपित हो रही हैं, उनका मार्मिक दास्तान भी सामने रखती है यह पुस्तक | भारत और दुनिया भर में फैले एवं बसे भोजपुरी साहित्य के प्रेमियों के बीच इस पुस्तक को अद्भुत लोकप्रियता हासिल हो रही है |
नाम - चंद्रेश्वर, जन्मः 30 मार्च, 1960 ,आशा पड़री, बक्सर,बिहार | पिता का नाम श्री केदार नाथ पांडेय और माता का नाम श्रीमती मोतीसरा देवी | लेखन के आरंभ में वाम लेखक संगठनों से गहरा जुड़ाव | उच्च शिक्षा आयोग ,प्रयागराज से चयनित होने के बाद 01 जुलाई सन् 1996 से एसोसिएट प्रोफेसर एवं हिन्दी विभागाध्यक्ष,
एम.एल.के.पी.जी.कॉलेज,बलरामपुर,उत्तर प्रदेश | हिन्दी की लगभग सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में सन् 1982-83 से कविताओं और आलोचनात्मक लेखों का लगातार प्रकाशन | अब तक चार पुस्तकें प्रकाशित | दो कविता संग्रह -'अब भी '(2010),'सामने से मेरे' (2017) के अलावा एक शोधालोचना की पुस्तक 'भारत में जन नाट्य आंदोलन'(1994) तथा एक साक्षात्कार की पुस्तिका 'इप्टा-आंदोलनःकुछ साक्षात्कार' (1998) का प्रकाशन |
भोजपुरी में एक स्मृति आख्यान 'हमार गाँव' (2020) का प्रकाशन | शीघ्र प्रकाश्य पुस्तकें ---'हिन्दी कविता की परंपरा और समकालीनता' (आलोचना),
'मेरा बलरामपुर' के अलावा तीसरा काव्य संग्रह -'डुमराँव नज़र आयेगा' |
बिहार राज्यपाल भवन में सूचना जन संपर्क अधिकारी एवं हिन्दी-भोजपुरी के विद्वान सुनील कुमार पाठक की टिप्पणी --'हमार गाँव' पर |
La Trobe University,
(ला ट्रॉबे युनिवर्सिटी )
Melbourne,
(मेलबर्न)
Australia,
(ऑस्ट्रेलिया)
Hindi Lecturer(हिन्दी प्रवक्ता) , Ian Woolford (इयान वूलफोर्ड) ने 'आखर भोजपुरी' के ट्वीटर पेज से 'हमार गाँव' पुस्तक के अमेज़न लिंक को किया रिट्वीट |
इयान वूलफोर्ड भाषा,साहित्य एवं लोक साहित्य पढ़ाते हैं | 'आखर भोजपुरी परिवार' और इयान वूलफोर्ड का बहुत-बहुत शुक्रिया |
चित्र में हिन्दी विभाग में दायें से विमल प्रकाश वर्मा,'हमार गाँव' के लोकप्रिय रचनाकार डॉ. चंद्रेश्वर, मशहूर आलोचक डॉ.बजरंग बिहारी तिवारी(दिल्ली) एवं डॉ. प्रकाश चंद्र गिरि |
हिन्दी विभाग में डॉ. ए. पी. वर्मा एवं विमल प्रकाश वर्मा को 'हमार गाँव' की प्रति देते हुए लेखक डॉ.चंद्रेश्वर |
नौगढ़ से युवा लेखक बृजेश मणि की समीक्षात्मक टिप्पणी 'हमार गाँव' पर |
#bhojpuribookchallenge
हमार गांव
लेखक- चंदेश्वर, आरा
बिहार का आरा शहर बहुत ही रचनात्मक और सृजनशील शहर रहा है | यह शहर दो बड़े और पुराने सांस्कृतिक,साहित्यिक,आध्यात्मिक,धार्मिक और राजनीतिक शहरों से जुड़े होने के कारण अपनी एक अलग और विशेष पहचान रखता है | इसके पूरब में पटना तो पश्चिम में काशी है | पटना यानी पाटलिपुत्र प्राचीन काल से लेकर आजतक देश में शासन सत्ता का एक प्रमुख केन्द्र रहा है तो काशी को धर्म और अध्यात्म की सत्ता का
आरा शहर हिन्दी,भोजपुरी साहित्य का भी गढ़ रहा है | उन्नीसवीं सदी के आरंभ के चार प्रमुख हिन्दी गद्यकारों (गद्य चतुष्टय) में एक पंडित सदल मिश्र इसी शहर के मिश्र टोली के रहने वाले थे | हिन्दी की महान विभूतियों में आचार्य शिवपूजन सहाय,राजा राधिका रमण प्रसाद सिन्हा,नलिन विलोचन शर्मा,शिवबालक राय,ब्रजनंदन सहाय,भगवती राकेश,बनारसी प्रसाद भोजपुरी,वेदनंदन सहाय, मधुकर सिंह,चंद्रभूषण तिवारी,रामेश्वर नाथ तिवारी जितराम पाठक,लक्ष्मीकांत सिन्हा एवं दीनानाथ सिंह आदि का इस शहर से गहरा नाता रहा है | अब भी यहाँ से कथाकार अनंत कुमार सिंह 'जनपथ' नाम की साहित्यिक पत्रिका नियमित निकालते हैं | भोजपुरी में वीर कुँवर सिंह महाकाव्य के रचयिता सर्वदेव तिवारी राकेश,रामनाथ पाठक प्रणयी,लक्ष्मण शाहाबादी,चितरंजन ,भानु जी,चौधरी कन्हैया प्रसाद सिंह ,महेन्दर गोस्वामी एवं अंबिका दत्त त्रिपाठी आरा में ही रहते थे |
इस किताब के लेखक चंद्रेश्वर जी भी
आरा शहर से है, आरा के जैन कॉलेज
से उन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की हमार गांव इनकी भोजपुरी किताब है जो हाल ही में आई
है
आरा,बिहार से अशोक दुबे की
टिप्पणी
डॉ चन्द्रेश्वर जी द्वारा रचित अनुपम कृति " हमार गाँव " अचानक
प्राप्त हुई,जिसको पाकर मैं
अत्यन्त अभिभूत हुआ! मैं ऐसे समय में इस पुस्तक को पढ रहा हूं जब उत्तर प्रदेश के
सांस्कृतिक नगर हाथरस में एक जघन्य अपराध के बाद राजनैतिक गीध मंडरा- मंडरा कर उस
मृतात्मा को भी सुकून से नहीं रहने दे रहे हैं! मैं यह मानता हूं ऐसे अपराध
नितान्त वर्ज्य हैं,चूंकि हाथरस नगर
से मुझे लगाव है इसीलिए उसका प्रसंग आना स्वाभाविक है,जातिवाद का उभार और राजनीति को चमकाने का अवसर तलाशते लोगों
की क्षुधा को देखने से लगता है कि समाज में चेतना नाम की कोई चीज नहीं है! हाँ तो
इस पुस्तक को पढने का कारण यह रहा है, कि लेखक की लोक को सहेजने की जिजीविषा कितनी बलवती है? मेरे लिए भोजपुरी की प्रथम कृति "द्रोपदी" का
अध्ययन कभी मैंने किया था,उसी समय मैंने
सोचा कि बोलियों को सहेजा जाना आवश्यक है! फिर तो " भिखारी ठाकुर" को
सहेजने का कार्य किया! अब तो अतीव प्रसन्नता का विषय है कि आदरेय डॉ चन्द्रेश्वर
जी भी मेरी ही तरह सांस्कृतिक विरासत सहेजने में संलग्न हैं! लोक गीत,लोक संस्कार,लोक संगीत ,सब कुछ इस पुस्तक
में विद्यमान है! कहीं उपन्यास,कहीं ललित निबन्ध,कहीं कहानी का पुट,कहीं नाट्य,तो कहीं
रिपोर्ताज,सब विधाएं इस पुस्तक में
पश्चिमी भोजपुरी की गहराई में जाकर पाठकों के मनस् को उद्वेलित करतीं हैं! एक
स्थान पर लेखक स्वयं कहते हैं:-"पहिले जिनगी के हर जलसा के मोका प लोग गावत-
बजावत रहे। हर दु:ख- सुख में गीत गवात रहे! भोजपुरी लोक में संगीत आ गीत के महत्व
रहे। अब ई परम्परा एकदमे पतरा गइल बा। कम लोग बाँचल बा जे एकरा के बचावे के जतन
में लगाव बा।" भाई चन्द्रेश्वर जी आप अकेले नहीं हैं हम भी बोलियों को बचाने की
इस जंग में आपके साथ हैं! अन्ततः पुस्तक रोचकता लिए है,पाठक पढेंगे तो पाएंगे कि आप लेखक के साथ मानसिक रूप से
युगीन पृष्ठभूमि में चले गये हैं! आइए लोक को सहेंजें! सादर जयहिन्द!
दिल्ली से विद्वान और लोक संस्कृति के गहरे अध्येता डॉ. वीरेन्द्र कुमार
चंद्रसखी की टिप्पणी
बनारस से भोजपुरी के महत्वपूर्ण कवि प्रकाश उदय की टिप्पणी भोजपुरी के सबसे टटका किताब हमरा किहें ईहे बा. आजे मिलल, अबगे. जतना बधाई अपना चंद्रेश्वर भाई के ओतने रश्मि प्रकाशन के.
अपना गाँव से बड़ा मन से मनमान बतियावत ई किताब. गुमान करे लायक गद्य.
रउरा सब एह कितबिया के पढ़ब ओकरा पहिले दू गो बात कहल जरूरी बा। ‘हमार गाँव’ एगो इयाद कथा ह, एगो स्मृति अखेयान ह। एह में कइ-कइ गो भूलल-बिसरल बातन, चरित्रन आ चित्रन के सहेजे के जतन कइल गइल बा। एह में सब किछु लिखा जाइत, ई कबो संभव ना रहे। हम जब पहिला हाली किछु लिखे के पहिले अपना गाँव प नजर ले गइनीं त देखलीं कि बहुते लोग-बाग के ढँकल-तोपाइल चेहरा, बहुते बातन के बंद पिटारा उघरत आ खुलत चल गइल; बात से बातो ढेर निकलल! हमरा पहिला हाली बुझाइल कि गाँव के सामाजिक संरचना आ संस्कृति एगो खूबे गहिर... हिलकोरा मारत नदी के चाकर धार लेखा होला; जेकर थाह पावल आसान ना होखे। हम अपना गाँव प लिखे के कोसिस में ओकर ताना-बाना के किछु-किछु समझे के परयास कइनीं। एह किताब में अपना गाँव के भीतर पइठे आ गोता लगावे के क्रम में दू-चार सितुही सच्चाइयन के पानी बटोरले बानी; एह से जादा के दावा ना कर सकीं। बहुते लोग बा, विविध रंग आ प्रसंग बा। सब लिखे के ताब ना रहे ना त एगो नया महाभारत रचा सकत रहे, भा एगो मोटहन पुराण तइयार हो सकत रहे! हमरा देस के हर गाँव के आपन-आपन व्यास मिल जासु त आजुओ अनेकन नया महाभारत आ नया पुरानन के रचना हो सकेला। जब हम एह में आपन बाबा आ आजी के इयाद कइले बानी त स्वाभाविक रूप से नाना आ नानी के इयाद आ गइल बा। पड़री (हमार गाँव) के बात होई त हमरा से पीड़िया(ममहर आ ननियाउर) कइसे छूट जाई!
खैर, हम जब अपना गाँव प लिखे लगलीं, त पता चलल कि हम त अपने बरग आ जाति के बिरोध में ठाढ़ बानी। नेआव आ अनेआव, नीमन आ जबुन, सच आ झूठ के खेलवो समझ में आवे लागल। हम किछु साहस बटोरले बानी, एकरा के लिखे में। ‘हमार गाँव’ के गद्य में जीवनी, आत्मकथा, रेखाचित्र, शब्दचित्र, रिपोर्ताज, संस्मरन, ललित निबंध, कहानी आ उपन्यास सब किछु फेंटा गइल बा।
हम अपना लेखन के आरंभिक दौर में सन् 1979 से 1982 के दौरान दू-तीन साल भोजपुरी में कविता आ कहानी लिखले बानी। ऊ सब ओह दौर में आरा से निकले वाला भोजपुरी पाक्षिक ‘गाँव-घर’ (संपादक- भानु जी) आ ‘चटक-मटक’(संपादक -चितरंजन) में छपलो रहे। हम एकरा बाद पढ़ाई आ रोजी-रोटी के संघर्ष में जेवन लपिटान लपेटइलीं कि ओने लवटे के मोका आ मोहलत ना मिलल। एने अचानके भोजपुरी में किछु लिखे खातिर मन में उल्हमेल्ह लेलस। एह पारी ई स्मृति अखेयान लिखाइल आपन गाँव प। जे होखे, एतना कह सकत बानी कि ‘हमार गाँव’ के गद्य के आधार ओहिजा के सामाजिक जीवन के जथारथ आ सच्चाइयन से बनल बा। एकरा में बाचक के आपन आँखिन देखल कहल गइल बा। आँखिन देखल स्मृति से छन के आइल बा। एकरा में साँच के आँच ओतने महसूस हो सकेला जेवन सहाए जोग होखे। कतो-कतो बिसरइला में किछु पात्रन के नाव एने आ ओने हो सकत बा। एह सब के लिखवावे वा किछु जरूरी संदर्भ के जानकारी देबे में हमार बाबुओ जी के महत्व कम ना हो सके। ई कितबिया के हर पन्ना फेसबुक प जारी भइल आ जरूरी फीडबैक मिलल ब। एह कितबिया के लिखत हम बार-बार हिन्दी के महाकवि निराला के एगो कथन के इयाद करत रहनी कि ‘गद्य जीवन संग्राम की भाषा है।’
एह में कतो-कतो जेवन भोजपुरी लोकगीतन के किछु अंतरा के दिहल गइल बा प्रसंगानुकूल ओकरा में हमार जीवन संगिनी इंदु जी के योगदान बा। एह भोजपुरी गद्य के लिखे में हम बरतनी के मामला में उच्चारन आ ध्वनियन के पकड़े के परयास कइले बानी। एकर आधार बनल पा पुरनका भोजपुर के नीचे के इलाका, दियर के गंगा के मैदानी इलाका। हम अब एह से जादा का कह सकत बानी। अब जेवन बनल बा रउरा सब के सोझा बा। एह कितबिया के सुरुआत भइल बा ‘समहुत’ से आ समापन भइल बा ‘कनियादान’ से। अब हमार बात केतना बनल बा रउरा सब बताईं, नेह-छोह के इंतजार रही।
राउर
#चंद्रेश्वर
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नाम - चंद्रेश्वर, जन्मः 30 मार्च, 1960 ,आशा पड़री, बक्सर,बिहार | पिता का नाम श्री केदार नाथ पांडेय और माता का नाम श्रीमती मोतीसरा देवी | लेखन के आरंभ में वाम लेखक संगठनों से गहरा जुड़ाव | उच्च शिक्षा आयोग ,प्रयागराज से चयनित होने के बाद 01 जुलाई सन् 1996 से एसोसिएट प्रोफेसर एवं हिन्दी विभागाध्यक्ष,
एम.एल.के.पी.जी.कॉलेज,बलरामपुर,उत्तर प्रदेश | हिन्दी की लगभग सभी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में सन् 1982-83 से कविताओं और आलोचनात्मक लेखों का लगातार प्रकाशन | अब तक चार पुस्तकें प्रकाशित | दो कविता संग्रह -'अब भी '(2010),'सामने से मेरे' (2017) के अलावा एक शोधालोचना की पुस्तक 'भारत में जन नाट्य आंदोलन'(1994) तथा एक साक्षात्कार की पुस्तिका 'इप्टा-आंदोलनःकुछ साक्षात्कार' (1998) का प्रकाशन |
भोजपुरी में एक स्मृति आख्यान 'हमार गाँव' (2020) का प्रकाशन | शीघ्र प्रकाश्य पुस्तकें ---'हिन्दी कविता की परंपरा और समकालीनता' (आलोचना),
'मेरा बलरामपुर' के अलावा तीसरा काव्य संग्रह -'डुमराँव नज़र आयेगा' |
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