जीने की कला
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जीवन जीने की कला
समझ नही आ रहा,ऐसा
कुछ ऐसा क्या करूँ के,
मन को मिले जरा विश्राम!
मन भी बेचारा, तन के
साथ साथ थक सा जाता
जब मन और तन की डगर,
एक हो रही है,तो बुद्धि भी
बेजान सी जान पड़ती है!
मन सोचता है, कुछ अलग
वो लोग कैसे सुखी, और ,
खुश है ,जो आभाव में जीते है
कैसे आभाव के दर्द को पीते हैं!
यकीनन अभाव की कीमत,
वही समझते है जो आभाव
में जीवन जीते हैं वही समझते
तभी तो जीवन मे मिली,
चीजों की अहमियत समझ,
खुश रहना सीख लेते है!
अभाव रहित जीवन ही
सही मायने में जीवन
जीवन जीने की कला,
सिखाता है ,अपनों के साथ
ताल मेल और खुशियां लाता है!
प्रियंका द्विवेदी
मंझनपुर कौशाम्बी
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