मजीठिया मामले मे सुप्रिम कोर्ट के फैसले का अनुपालन कराने मे अब तक विफल रही है मोदी सरकार। जयराम पान्डेय
देश भर के श्रम न्यायालयो मे न्याय के लिये भटक रहे है पीडित लाखो पत्रकार
इस लोकतंत्र में माननीय न्यायालय के आदेश का सम्मान करना हर किसी का फर्ज है। कोई भी व्यक्ति या संस्था संविधान से बड़ी नहीं हो सकती। लेकिन एक ओर केन्द्र सरकार माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेश के सम्मान की बात करती हैं तो वही दूसरी ओर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुपालन के लिए दोहरा मापदंड अपना रही है।
केन्द्र सरकार कारपोरेट हाउसों पर इतनी मेहरबान हैं कि उसके लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश का भी अनुपालन कराना जरूरी नहीं समझती। तत्कालीन माननीय मुख्य न्यायाधीश ने 6 साल पहले पाँच न्यायाधीशो की पीठ ने पत्रकारों और गैर पत्रकारों के वेतन के लिए गठित मजीठिया वेज बोर्ड के बारे में अहम फैसला दिया था।
यह फैसला देश के कारपोरेट हाउसों यानि अखबार मालिकों के खिलाफ हैं। हजारों पत्रकारों, गैर पत्रकारों व उनके परिवारो के हित में यह अहम फैसला हुआ है।
मोदी जी की केंद्रीय सरकार का यह दूसरा कार्यकाल है लेकिन केंद्रीय सरकार माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेश का कितना सम्मान किया ? 6 साल से अधिक समय बीत गए और आदेश का अनुपालन नहीं हो सका। हजारों पत्रकारों के वेज बोर्ड से सम्बंधित मामले विभिन्न जिलों के श्रम न्यायालयों में लटके हुए हैं। बड़ी दयनीय व शर्मनाक स्थिति है।
जिन अखबारों को रोज सुबह आम जनता बड़े ही उत्शुक हो कर पढ़ती हैं। उसमें ईमानदारी, नैतिकता, आदर्श और आध्यात्म की बातें छपी होती हैं। लेकिन इन अखबरों के मालिको ने हजारों पत्रकारों के वेतन का करोड़ों रूपया दबाकर बैठे हैं। देशभर के हजारों पत्रकार और गैर पत्रकार अपना हक मांग रहे हैं और बदले में उन्हें दबाया, डराया और नौकरी से निकाला जा रहा हैं।
देश में बड़ी फैक्ट्रियां और कारोबार करनेवाले अब अपने कर्मचारियों के जरिए पत्रकारों की आवाज दबाने की कोशिशें कर रही हैं। लोकतंत्र में इससे बड़ी शर्मनाक स्थिति और क्या हो सकती है।
ऐसे लोगों को अखबारों के जरिए लोकतंत्र, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बोलने का क्या हक हैं? क्या मजीठिया वेज बोर्ड पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बारे में सरकार अनजान है या जानबूझकर अनजान बनने की कोशिश कर रही है? सबसे अहम सवाल कि आखिर किसके दम पर कारपोरेट घराने सुप्रीम कोर्ट के आदेश को 6 साल बाद भी लागू नहीं कर सके हैं। आज सरकार और नौकरशाही की उदासीनता पत्रकारों को उनके हक से वंचित किये हुए है।
सरकार और अखबार मालिक इस मामले में माननीय सुप्रीम कोर्ट के आदेश का पालन करते नहीं दिखाई दे रहे हैं।उच्चतम न्यायालय के आदेश के सम्मान का यह कैसा मापदंड है।
केन्द्र सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि उच्चतम न्यायालय के फैसले से हजारों पत्रकारों व गैर पत्रकारों के परिवारों इस मसले से जुड़े हैं। साथ ही पत्रकारिता से जुड़े हर व्यक्ति की भावना भी इसमें जुड़ी हुई है जो संस्थानों मे काम कर रहे हैं। पत्रकारों के लिए गठित वेज बोर्डों ने जब जब संस्तुतियां की तब तब उनका हक मारा गया है।
इस बार भी पूंजीपति वर्ग श्रमिक वर्ग का हक मारने की कोशिश कर रहा हैं। भ्रष्टाचार मुक्ति, ईमानदारी और सबका साथ सबका विकास का नारा देनेवाली सरकार को इस मसले पर अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए।
जयराम पान्डेय
स्वतंत्र पत्रकार/मजीठिया क्रांतिकारी
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