मेरी दृष्टि में कोई भी व्यक्ति ठीक अर्थों में शिक्षक तभी हो सकता है जब उसमें विद्रोह की एक अत्यंत ज्वलंत अग्नि हो। जिस शिक्षक के भीतर विद्रोह की अग्नि नहीं है वह केवल किसी न किसी निहित, स्वार्थ का, चाहे समाज, चाहे धर्म, चाहे राजनीति, उसका एजेंट होगा। शिक्षक के भीतर एक ज्वलंत अग्नि होनी चाहिए विद्रोह की, चिंतन की, सोचने की। लेकिन क्या हममें सोचने की अग्नि है और अगर नहीं है तो आप भी एक दुकानदार हैं। शिक्षक होना बड़ी और बात है। शिक्षक होने का मतलब क्या है? क्या हम सोचते हैं-आप बच्चों को सिखाते होंगे, सारी दुनिया में सिखाया जाता है बच्चों को, बच्चों को सिखाया जाता है, प्रेम करो! लेकिन कभी आपने विचार किया है कि आपकी पूरी शिक्षा की व्यवस्था प्रेम पर नहीं, प्रतियोगिता पर आधारित है। किताब में सिखाते हैं प्रेम करो और आप की पूरी व्यवस्था, पूरा इंतजाम प्रतियोगिता का है।

जहां प्रतियोगिता है वहां प्रेम कैसे हो सकता है। जहां काम्पिटीशन है, प्रतिस्पर्धा है, वहां प्रेम कैसे हो सकता है। प्रतिस्पर्धा तो ईर्ष्या का रूप है, जलन का रूप है। पूरी व्यवस्था तो जलन सिखाती है। एक बच्चा प्रथम आ जाता है तो दूसरे बच्चों से कहते हैं कि देखो तुम पीछे रह गए और यह पहले आ गया। आप क्या सिखा रहे हैं? आप सिखा रहे हैं कि इससे ईर्ष्या करो, प्रतिस्पर्धा करो, इसको पीछे करो, तुम आगे आओ। आप क्या सिखा रहे हैं? आप अहंकार सिखा रहे हैं कि जो आगे है वह बड़ा है जो पीछे है वह छोटा है। लेकिन किताबों में आप कह रहे हैं कि विनीत बनो और किताबों में आप समझा रहे हैं कि प्रेम करो; और आपकी पूरी व्यवस्था सिखा रही है कि घृणा करो, ईर्ष्या करो, आगे निकलो, दूसरे को पीछे हटाओ और आपकी पूरी व्यवस्था उनको पुरस्कृत कर रही है। जो आगे आ रहे हैं उनको गोल्ड मेडल दे रही है, उनको सर्टिफिकेट दे रही है, उनके गलों में मालाएं पहना रही है, उनके फोटो छाप रही है; और जो पीछे खड़े हैं उनको अपमानित कर रही है। तो जब आप पीछे खड़े आदमी को अपमानित करते हैं तो क्या आप उसके अहंकार को चोट नहीं पहुंचाते कि वह आगे हो जाए? और जब आगे खड़े आदमी को आप सम्मानित करते हैं तो क्या आप उसके अहंकार को प्रबल नहीं करते हैं? क्या आप उसके अहंकार को नहीं फुसलाते और बड़ा करते हैं? और जब ये बच्चे इस भांति अहंकार में, ईर्ष्या में, प्रतिस्पर्धा में पाले जाते हैं तो यह कैसे प्रेम कर सकते हैं। प्रेम का हमेशा मतलब होता है कि जिसे हम प्रेम करते हैं उसे आगे जाने दें। प्रेम का हमेशा मतलब है, पीछे खड़े हो जाना।

एक छोटी सी कहानी कहूं, उससे खयाल में आए।

तीन सूफी फकीरों को फांसी दी जा रही थी और दुनिया में हमेशा धार्मिक आदमी संतों के खिलाफ रहे हैं। तो धार्मिक लोग उन फकीरों को फांसी दे रहे थे। तीन फकीर बैठे हुए थे कतार में। जल्लाद एक-एक का नाम बुलाएगा और उनको काट देगा। उसने चिल्लाया कि नूरी कौन है, उठ कर आ जाए। लेकिन नूरी नाम का आदमी तो नहीं उठा, एक दूसरा युवक उठा और वह बोला कि मैं तैयार हूं, मुझे काट देंगे। उसने कहा: लेकिन तेरा तो नाम यह नहीं है। इतनी मरने की क्या जल्दी है? उसने कहा: मैंने प्रेम किया और जाना कि जब मरना हो तो आगे हो जाओ और जब जीना हो तो पीछे हो जाओ। मेरा मित्र मरे, उसके पहले मुझे मर जाना चाहिए। और अगर जीने का सवाल हो तो मेरा मित्र जीए, उसके पीछे मुझे जीना चाहिए।

प्रेम तो यही कहता है, लेकिन प्रतियोगिता क्या कहती है? प्रतियोगिता कहती है, मरने वाले के पीछे हो जाना और जीने वाले के आगे हो जाना। और हमारी शिक्षा क्या सिखाती है? प्रेम सिखाती है या प्रतियोगिता सिखाती है? और जब सारी दुनिया में प्रतियोगिता सिखाई जाती हो और बच्चों के दिमाग में काम्पिटीशन और एंबीशन का जहर भरा जाता हो तो क्या दुनिया अच्छी हो सकती है? जब हर बच्चा हर दूसरे बच्चे से आगे निकलने के लिए प्रयत्नशील हो, और जब हर बच्चा हर बच्चे को पीछे छोड़ने के लिए उत्सुक हो, बीस साल की शिक्षा के बाद जिंदगी में वह क्या करेगा? यही करेगा, जो सीखेगा वही करेगा। हर आदमी हर दूसरे आदमी को खींच रहा है कि पीछे आ जाओ। नीचे के चपरासी से लेकर ऊपर के राष्ट्रपति तक हर आदमी एक-दूसरे को खींच रहा है कि पीछे आ जाओ। और जब कोई खींचते-खींचते चपरासी राष्ट्रपति हो जाता है तो हम कहते हैं, बड़ी गौरव की बात हो गई। हालांकि किसी को पीछे करके आगे होने से बड़ा हीनता का, हिंसा का कोई काम नहीं है। लेकिन यह वायलेंस हम सिखा रहे हैं, यह हिंसा हम सिखा रहे हैं और इसको हम कहते हैं, यह शिक्षा है। अगर इस शिक्षा पर आधारित दुनिया में युद्ध होते हों तो आश्चर्य कैसा! अगर इस शिक्षा पर आधारित दुनिया में रोज लड़ाई होती हो, रोज हत्या होती हो तो आश्चर्य कैसा! अगर इस शिक्षा पर आधारित दुनिया में झोपड़ों के करीब बड़े महल खड़े होते हों और उन झोपड़ों में मरते लोगों के करीब भी लोग अपने महलों में खुश रहते हों तो आश्चर्य कैसा! इस दुनिया में भूखे लोग हों और ऐसे लोग हों जिनके पास इतना है कि क्या करें, उनकी समझ में नहीं आता। यह इस शिक्षा की बदौलत है, यह इस शिक्षा का परिणाम है। यह दुनिया इस शिक्षा से पैदा हो रही है और शिक्षक इसके लिए जिम्मेवार है, और शिक्षक की नासमझी इसके लिए जिम्मेवार है। वह शोषण का हथियार बना हुआ है। वह हजार तरह के स्वार्थों का हथियार बना हुआ है, इस नाम पर कि वह शिक्षा दे रहा है, बच्चों को शिक्षा दे रहा है!

अगर यही शिक्षा है तो भगवान करे कि सारी शिक्षा बंद हो जाए तो भी आदमी इससे बेहतर हो सकता है। जंगली आदमी शिक्षित आदमी से बेहतर है। उसमें ज्यादा प्रेम है और कम प्रतिस्पर्धा है, उसमें ज्यादा हृदय है और कम मस्तिष्क है; लेकिन इससे बेहतर वह आदमी है। लेकिन हम इसको शिक्षा कह रहे हैं! और हम करीब-करीब जिन-जिन बातों को कहते हैं कि तुम यह करना, उनसे उलटी बातें हम, पूरा सरंजाम हमारा, उलटी बातें सिखाता है!
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