सदियों से यह प्रथा चली आयी है कि सभी को कुर्सी की चाह रहती है । तभी तो योग्य अयोग्य सभी अपनी चाह की पूर्ति में लगे रहते है । कुछ लोग धन के बल पर कुछ ताकत के बल पर कुर्सी पा लेते है । इस कुर्सी की वजह से ढेरो लड़ाईया हुई है । अनेको ने अपनी जान गवाई है । मात्र सिर्फ कुर्सी के लिए ।

तो क्या यह माना जाए कि कुर्सी पाना जीवन का सबसे महत्वपूर्ण कार्य है । क्या कुर्सी के बिना जीवन संभव नही है । पर सच्चाई इसके ठीक विपरीत है लोग कुर्सी की चाह मात्र अपनी इच्छा और आवश्यकता की पूर्ति के लिए रखते है । जबकि कुर्सी के अधिकार और कर्तव्य उतपन्न नियमित दायित्वों के बारे में सोचने वाले कम लोग है 

समय बदलने के साथ साथ कुर्सी का स्वरूप भी बदला है और आज सब उसे किसी विशेष पद के नाम से जानते है जिसको पा लेने के लिए कठिन से कठिन मेहनत लोग करने से गुरेज नही करते । मेहनत तक तो ठीक है पर प्रभावित तरीके से पाने की चाह की वजह से अनेको लोगो का हित प्रभावित होता है उसके बारे में कोई नही सोचता ।

उत्तर प्रदेश में अनामिका शुक्ला का केस से पुनः यह सोचने पर सब विवश होते है कि समय कैसा भी हो व्यवस्था कैसी भी हो कुछ लोगो के लिए उनकी पहुच और पैसा काम हमेशा आसान करते आये है और शायद आगे भी करते रहेंगे ।

क्या हम सब इस व्यवस्था पर विचार नही कर सकते कि किसी भी कुर्सी को पाने की चाह को उत्पन्न होने से पहले ही उसकी जिम्मेदारियों को पहले समझ ले । अपने व्यक्तिगत हितो को बाद में स्थान दे उस कुर्सी से प्रभावित हो सकने वाले लोगो को प्राथमिकता दे ।

आज कोरोना वायरस की वजह से दुनिया भर की व्यवस्थाएं बदल चुकी है और कई लोग ऐसे इस समाज मे है कि कुर्सी के प्रति ही आशक्त है । जबकि लोगो की जरूरतों के बारे में सोचना और करने का समय पहले से अधिक जरूत है ।

कुर्सी की कामना छोड़ आज हम सब को जहां पर भी है जैसे भी है कुछ न कुछ करने की जरूरत है जिससे श्रम के अनुत्पादक होने से बचाया जा सके तथा सही श्रम से कार्य को उत्पादक बनाकर देश समाज और अपने उद्देश्यों और जरुरतो की पूर्ति की जा सकें । यह समय है सिद्दत के साथ काम करने का बिना कुर्सी पाने या खोने की चाह में तभी स्वयं के साथ साथ आर्थिक व्यस्था देश की मजबूत हो सकती है और हम इस महामारी से बाहर आ सकते है । कुर्सी के प्रति आशक्त होने के बजाय दायित्वों की पूर्ति के समय यही है ।

डॉ. अजय कुमार मिश्रा (लखनऊ)
Drajaykrmishra@gmail.com

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