वो गरीब था ना साहब
किसको फर्क पड़ता हैं
उसके मरने या जीने से
मजबूर था बीबी बच्चो के साथ पैदल चलने को
अमीर होता तो टीवी मीडिया में चर्चे होते साहब
क्या करू साहब अपने पास तो 11 नंबर गाड़ी थी
चल दिए उसी से पड़ गये पैरों में छाले             
भूख से आंते भी सिकुड़ चुकी थी साहब
ना मेरे पास लाल बत्ती वाली गाड़ी थी साहब
तो मुझे क्यों महामारी मारेगी
मुझे तो बस उन चार रोटियों के खातिर जान अपनी गवानी पड़ी
क्या कसूर था मेरा साहब बस इतना ही कि
तपती धूप जो अंगार सी थी उसमे बेखोफ चल रहा था
क्या करता साहब बच्चो को बिलखते देख नही सकता था
दो रोटी कमाने आया था गावं से शहर
मुझसे पूछो साहब क्या होता हैं अपनों से दूर होने का दर्द
अपनों से मिलने के लिए तड़पता हूँ
त्यौहार का इंतजार रहता हैं हरदम
नही रहता चाहता ऐसे कोई मज़बूरी हैं मेरी
रोजगार की तलाश में प्रवासी होना पड़ता हैं
मेरे जाने के लिए ना ट्रेन थी ना अन्य साधन
सब कुछ बंद था आने जाने के लिए
बेफ्रिक था ट्रेन से इसलिए पटरी पर सो गया
थकन इतनी थी कि नींद में बेसुध सो गया
ना कानो में कुछ सुनाई दे रहा था न दिमाक में कोई हलचल हुई
और चढ़ गयी रेलगाड़ी मेरे ऊपर जो मुझे लेने तो नही आई
पर मुझे ऊपर छोड़ने के लिए जरुर आ गयी
ख़ुशी  हुई मरने के बाद तो मुझे ले जाने के लिए तो स्पेशल ट्रेन और लोग  आये
किसी ने मुझसे पूछा था कि क्यूँ घर जाना चाहते हो
मैंने उस शख्स से कहा, 
सरकार ही तो कह रही हैं

“स्टे होम स्टे सेफ”

वो सरकार की पुष्पों की वर्षा को देखकर मेरा बच्चा मासूमियत से मुझसे बोला
बाबा देखो जहाज से हमारे लिए खाना गिर रहा हैं
तब मैंने बच्चे को समझाया बेटा खाना नही फूल हैं
मर तो उसी दिन गया था जब 4 रोटी का भी इंतजाम नहीं कर पाया साहब
ट्रेन के नीचे आकर तो बस शरीर खत्म हुआ हैं
जिंदगी भर उचीं- उच्ची इमारतो का बोझ तो ढो लिया
पर साहब घर की जिम्मेदारियों का बोझ नही उठा पाया
साहब दोष किसी का भी हो चाहे मज़बूरी का, मजदूर का या पटरी का
चपेट में तो एक गरीब ही आया साहब I


प्रियंका मित्तल
Assistant Professor in Department of Education, Regional Institute of Education Ajmer 305004 priyanshimittal1984@gmail.com

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