धर्म के दो ही भेद है!
संकल्प और समर्पण; मन्त्रों इत्यादि में कोई शक्ति नहीं होती, चाहे वो वेद के श्लोक हों, कुरान की आयतें हों या बाईबल के वचन! शक्ति तो तुम्हारी श्रद्धा में होती है, तुम्हारे संकल्प में! तुम्हारे समर्पण में! श्रद्धा तुम्हारी कुरान पर है तो कुरान में शक्ति आ जाएगी, और श्रद्धा तुम्हारी गीता पर है तो गीता में शक्ति आ जाएगी, श्रद्धा गायत्री पर तो गायत्री में, श्रद्धा नमोकार पर तो नमोकार में! मगर ध्यान रखना, शक्ति है तो सिर्फ श्रद्धा में! संकल्प में! समर्पण में! न तो किसी वचन में कोई शक्ति है, ना ही किसी मंत्र में! किसी हिंदू को कहो कि दोहराओ नमोकार! वह दोहरा देगा, उसे कुछ अनुभव नहीं होगा, मगर जैन जब दोहराता है तो गदगद हो जाता है, यह नमोकार नहीं है! जो गदगद कर रहा है! नहीं तो सारी दुनिया को गदगद कर देता, यह उसका भाव है! उसकी श्रद्धा है।
किसी नास्तिक को कहो कि गायत्री मंत्र में बड़ी शक्ति है और तुम गायत्री मंत्र उसके सामने कहो, कुछ असर न होगा! तुम बजाते रहो बीन, भैंस पड़ी पगुराय! गायत्री में कोई शक्ति नहीं है, शब्दों में कहीं शक्ति हो सकती है? शक्ति होती है तुम्हारे भाव में। तुम जहाँ अपना भाव उड़ेल देते हो, बस वहीं शक्ति पैदा हो जाती है। मंत्रों में उड़ेल दोगे, मंत्रो में पैदा हो जाएगी। मंत्र का अर्थ होता है; जो मन को रुझा ले, मंत्र का अर्थ होता है; जो मन को भा जाए, जो मन को रंग ले, जो मन के लिए सूत्र बन जाए। तो कोई भी चीज मंत्र हो सकती है। इसलिए माँ अपने छोटे बच्चे को सुलाने के लिए लोरी गाती है; वह भी मंत्र की तरह काम करता है। राजा बेटा सो जा! राजा बेटा सो जा, कोई ज्यादा बड़ा मंत्र नहीं है, छोटा सा मंत्र है! गायत्री मंत्र पढ़ो तो शायद राजा बेटा न भी सोए, उठ कर बैठ जाए कि यह क्या कर रही है तू? उसकी समझ में न आए! नमोकार पढ़ो तो उलटे-सीधे प्रश्न पूछने लगे कि इसका क्या अर्थ? उसका क्या अर्थ है?
पाली, प्राकृत, संस्कृत, अरबी तुम पढ़ोगे तो बैठ जाएगा एकदम उठ कर और हजार तरह के प्रश्न खड़े करने लगेगा। लेकिन राजा बेटा सो जा वह भी समझता है। राजा बेटा का भी मतलब समझता है और सो जाने का मतलब भी समझता है, और सो जा शब्द को भी! अगर इसे बार-बार दोहराया जाए! सो जा, सो जा, सो जा, तो नींद अपने आप आनी शुरू हो जाती है, इस शब्द में भी थोड़ा नींद का नशा है! यही मंत्र हो गया। मंत्र में कोई शक्ति नहीं होती! किसी मंत्र में कोई शक्ति नहीं होती! इसलिए तो एक धर्म का मंत्र दूसरे धर्म के काम नहीं आता, इसलिए तो एक धर्म के लोग दूसरे धर्म के मंत्रों पर हंसते हैं, कि यह सब मूर्खतापूर्ण है, मगर अपने धर्म के मंत्र पर उनको बड़ी श्रद्धा होती है। मतलब भी पता न हो, तब भी श्रद्धा होती है! तुम्हें जो समझ में आ जाए, उससे तुम प्रभावित हो जाओ, तभी समझ में आ सकता है, लेकिन जो तुम्हें समझ में ही नहीं आता, उससे तुम क्या प्रभावित होओगे!
लेकिन करीब-करीब दुनिया के पुरोहितों ने यह व्यवस्था कर रखी है कि पुरानी मुर्दा भाषाओं को मरने नहीं देते। कम से कम मंदिरों में जिलाए रखते हैं। पुरानी मुर्दा भाषाओं की एक खूबी है; तुम्हारी समझ में आती नहीं, तुम सोचते हो कि गजब की चीजें होंगी! तुम कभी वेदों को उठाकर देखो, बड़े हैरान होओगे; निन्यानबे प्रतिशत कूड़ा-कर्कट! जो होना ही नहीं चाहिए वेद में, जिसको वेद कहना एकदम व्यर्थ की बात है! मगर कौन पढ़ता है? किसको देखना है? बाइबिल को उठा कर देखो, कचरा ही कचरा! जिसकी कोई जरूरत नहीं है, मगर ईसाई पढ़ता है बाइबिल को?
शास्त्रों पर तो धूल जम रही है, मगर वे ऐसी भाषाओं में लिखे हैं कि पूजा के योग्य हैं। फूल चढ़ा दिए, चंदन लगा दिया, सिर झुका लिया, झंझट मिटाई! काश तुम्हें उनके अर्थ समझ में आ जाएँ तो शायद तुम सिर भी झुकाने में संकोच करो कि मैं किसको सिर झुका रहा हूँ! क्या प्रयोजन है? क्या अर्थ है?
जो अर्थ तुम्हारे समझ में आते हों और उनसे भाव पैदा होता हो, तो निश्चित ही शक्ति आ जाती है, मंत्र में! लेकिन वह शक्ति तुम्हीं डालते हो। और यह अगर तुम्हारी समझ में आ जाए तो डालने की क्या जरूरत है मंत्र में? वह शक्ति तो तुम्हारी ही है, तुम उस शक्ति को बिना मंत्र के भी उपयोग में ला सकते हो! और वही ध्यान है! बिना मंत्र के अपनी शक्तियों के प्रति सजग हो जाना ध्यान है !!

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