मैंने सुनी है चीन की एक कहानी। एक मेला भरा है। और एक
आदमी गिर पड़ा कुएं में। शोरगुल बहुत है। बहुत चिल्लाता है,मगर कोई सुनता नहीं। तब
एक बौद्ध—भिक्षु
उसके पास आकर रुका। उसने नीचे नजर डाली। वह आदमी चिल्लाया कि बचाओ महाराज! हे
भिक्षु महाराज मुझे बचाओ! मैं मरा जा रहा हूं। भिक्षु ने कहा: भगवान ने कहा है कि
जीवन तो जरा है, मरण
है। मरना तो होगा ही। मरना तो सभी को है। यहां जो भी आए सभी को मरना है।
उस
आदमी ने कहा: वह सब ठीक है, अगर
अभी, अभी
फिलहाल तो निकालो, फिर
जब मरना है मरेंगे। मगर बौद्ध—भिक्षु भी ज्ञानी था, उसने कहा कि क्या समय
से भेद पड़ता है, आज
मरे कि कल मरे! अरे जब मरना ही है तो मर ही जाओ। और जय जीवन की आशा छोड़कर मरोगे, तो फिर पुनर्जन्म नहीं
होगा। और यह जीवन की आशा लेकर मरे, फिर सड़ोगे। चौरासी का
चक्कर है!
वह
आदमी वैसे ही तो मरा जा रहा है, उसको और चौरासी का
चक्कर! बौद्ध भिक्षु तो आगे बढ़ गया। ज्ञान की बात कह दी,मतलब की बात कह दी; सुनो सुनो, समझो, न समझो न समझो।
उसके
पीछे एक कन्फ्यूशियन भिक्षु आकर रुका। उसने भी देखा नीचे। वह आदमी चिल्लाया कि
महाराज, तुम
बचाओ। कन्फ्यूशियस को मानने वाले ने कहा: घबड़ा मत, कन्फ्यूशियस ने अपनी
किताब में लिखा है कि हर कुएं पर पाट होनी चाहिए, आज यह प्रमाण हो गया।
इस कुएं पर पाट नहीं है, इसलिए
तू गिरा। अगर पाट होती, कभी
न गिरता। हम सारे देश में आंदोलन चलाएंगे कि हर कुएं पर पाट होने चाहिए।
उसने
कहा: यह सब तुम करना पीछे। मैं मर जाऊंगा। और अब पाट भी बन जाएगी। तो क्या होगा? मैं तो गिर ही चुका
हूं।
उसने
कहा: तू तो फिकर ही मत कर; यह
सवाल व्यक्तियों का नहीं है। व्यक्ति तो आते रहते हैं, जाते रहते हैं; सवाल समाज का है।
वह
गया और मंच पर खड़ा हो गया और मेले में लोगों को समझाने लगा कि भाइयो! हर कुएं पर
पाट होने चाहिए।
तब
एक ईसाई पादरी भी आकर रुका। उसने जल्दी से अपने झोले में से बाल्टी निकाली, रस्सी निकाली। बाल्टी
डाली, रस्सी
डाली। आदमी को कहा कि पकड़ ले रस्सी, बैठ जा बाल्टी में।
खींच लिया उसे बाहर। वह आदमी पैरों पर गिर पड़ा और उसने कहा कि तुम्हीं सच्चे
धार्मिक आदमी हो। बौद्ध—भिक्षु
आया, वह
मुझे धम्मपद की गाथाएं सुनाने लगा। कन्फ्यूशियसी आया, वह मुझे कहने लगा कि सब
कुओं पर पाट बनवा देंगे, तू
मत घबड़ा। तेरे बच्चे कभी भी नहीं गिरेंगे। एक तुम्हीं, सच्चे, जो तुमने मुझे बचाया।
मगर एक बात मेरे मन में उठती है कि एकदम से बाल्टी—रस्सी कहां से ले आए?
उसने
कहा: मैं ईसाई हूं। हम सब इंतजाम पहले ही करके चलते हैं। सेवा हमारा धर्म है। और
हमारी तुमसे इतनी ही प्रार्थना है, न तो जरूरत है कुओं पर
पाट बनाने की, न
जरूरत है धम्मपद की गाथाओं को याद करने की। ऐसे ही गिरते रहना, ताकि हम भी बचाएं, हमारे बच्चे भी बचाए।
अपने बच्चों को भी समझा जाना कि गिरते रहना। क्योंकि न तुम गिरोगे न हम बचाएंगे, तो फिर स्वर्ग कैसे
जाएंगे?
यहां
सबके अपने हिसाब हैं। यहां किसी को किसी और से प्रयोजन नहीं है। यहां क्या पुण्य
क्या पाप! मेरे हिसाब में एक ही पाप है—मूर्च्छित जीना। ऐसे
जीना जैसे तुम शराब पी कर जी रहे हो। और ऐसे ही लोग जी रहे हैं। दरिया कहता है; जागे में जागना है। और
हम तो जागे में सोए हैं! सोये में तो सोए ही हैं, जागे में सोए हैं। हमें
जागे में जागना है और फिर सोए में भी जागना है।
कृष्ण
ने कहा है: या निशा सर्वभूतायां तस्यां जागर्ति संयमी। जब सारे लोग सोए होते हैं, तब भी जो वस्तुतः योगी
है, ध्यानी
है, जागा
होता है। गहरी से गहरी नींद में भी उसके ध्यान का दीया नहीं बुझता है। उसका ध्यान
का दीया जलता रहता है।
तो
मैं तुमसे कहता हूं: जागो! होश को संभालो। फिर तुम जो भी करोगे, वह ठीक होगा। ठीक करने
से होश नहीं सम्हलता; होश
सम्हल ने से ठीक होता है। गलत छोड़ने से होश नहीं सम्हलता,होश सम्हलने से गलत
छूटता है। मैं अपने सारे धर्म को एक ही शब्द में तुमसे कह देना चाहता हूं—वह ध्यान है। और ध्यान
का अर्थ—होश, प्रज्ञा, जागरण।
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