चीन में एक बहुत बड़ा फकीर हुआ।
वह अपने गुरु के पास गया तो गुरु ने उससे पूछा कि तू सच में संन्यासी हो जाना चाहता है कि संन्यासी दिखना चाहता है? उसने कहा कि जब संन्यासी ही होने आया तो दिखने का क्या करूंगा? होना चाहता हूं। तो गुरु ने कहा, फिर ऐसा कर, यह अपनी आखिरी मुलाकात हुई। पाँच सौ संन्यासी हैं इस आश्रम में तू उनका चावल कूटने का काम कर। अब दुबारा यहां मत आना।
जरूरत जब होगी, मैं आ जाऊंगा।
वह अपने गुरु के पास गया तो गुरु ने उससे पूछा कि तू सच में संन्यासी हो जाना चाहता है कि संन्यासी दिखना चाहता है? उसने कहा कि जब संन्यासी ही होने आया तो दिखने का क्या करूंगा? होना चाहता हूं। तो गुरु ने कहा, फिर ऐसा कर, यह अपनी आखिरी मुलाकात हुई। पाँच सौ संन्यासी हैं इस आश्रम में तू उनका चावल कूटने का काम कर। अब दुबारा यहां मत आना।
जरूरत जब होगी, मैं आ जाऊंगा।
कहते
है, बारह
साल बीत गए। वह संन्यासी चौके के पीछे, अंधेरे गृह में चावल
कूटता रहा। पांच सौ संन्यासी थे। सुबह से उठता, चावल कूटता रहता। रात
थक जाता, सो
जाता। बारह साल बीत गए। वह कभी गुरु के पास दुबारा नहीं गया। क्योंकि जब गुरु ने
कह दिया, तो
बात खतम हो गयी। जब जरूरत होगी वे आ जाएंगे, भरोसा कर लिया। कुछ
दिनों तक तो पुराने खयाल चलते रहे, लेकिन अब चावल ही कूटना
हो दिन—रात
तो पुराने खयालों को चलाने से फायदा भी क्या? धीरे—धीरे पुराने खयाल विदा
हो गए। उनकी पुनरुक्ति में कोई अर्थ न रहा। खाली हो गए, जीर्ण—शीर्ण हो गए।
बारह साल बीतते—बीतते तो उसके सारे विदा ही हो गए विचार। चावल ही कूटता रहता। शांत रात सो जाता, सुबह उठ आता, चावल कूटता रहता। न कोई अड़चन, न कोई उलझन। सीधा—सादा काम, विश्राम।
बारह साल बीतते—बीतते तो उसके सारे विदा ही हो गए विचार। चावल ही कूटता रहता। शांत रात सो जाता, सुबह उठ आता, चावल कूटता रहता। न कोई अड़चन, न कोई उलझन। सीधा—सादा काम, विश्राम।
बारह
साल बीतने पर गुरु ने घोषणा की कि मेरे जाने का वक्त आ गया और जो व्यक्ति भी
उत्तराधिकारी होना चाहता हो मेरा, रात मेरे दरवाजे पर चार
पंक्तियां लिख जाए जिनसे उसके सत्य का अनुभव हो। लोग बहुत डरे, क्योंकि गुरु को धोखा
देना आसान न था। शास्त्र तो बहुतों ने पढ़े थे। फिर जो सब से बडा पंडित था, वही रात लिख गया आकर।
उसने लिखा कि मन एक दर्पण की तरह है, जिस पर धूल जम जाती है।
धूल को साफ कर दो, धर्म
उपलब्ध हो जाता है। धूल को साफ कर दो, सत्य अनुभव में आ जाता
है। सुबह गुरु उठा, उसने
कहा, यह
किस नासमझ ने मेरी दीवाल खराब की? उसे पकड़ो।
वह
पंडित तो रात ही भाग गया था, क्योंकि वह भी खुद डरा
था कि धोखा दें! यह बात तो बढ़िया कही थी उसने, पर शास्त्र से निकाली
थी। यह कुछ अपनी न थी। यह कोई अपना अनुभव न था। अस्तित्वगत न था। प्राणों में इसकी
कोई गंज न थी। वह रात ही भाग गया था कि कहीं अगर सुबह गुरु ने कहा, ठीक! तो मित्रों को कह
गया था, खबर
कर देना; अगर
गुरु कहे कि पकड़ो, तो
मेरी खबर मत देना।
सारा आश्रम चिंतित हुआ। इतने सुंदर वचन थे। वचनों में क्या कमी है? मन दर्पण की तरह है, शब्दों की, विचारों की, अनुभवों की धूल जम जाती है। बस इतनी ही तो बात है। साफ कर दो दर्पण, सत्य का प्रतिबिंब फिर बन जाता है। लोगों ने कहा, यह तो बात बिलकुल ठीक है, गुरु जरा जरूरत से ज्यादा कठोर है। पर अब देखें, इससे ऊंची बात कहां से गुरु ले आएंगे। ऐसी बात चलती थी, चार संन्यासी बात करते उस चावल कूटने वाले आदमी के पास से निकले। वह भी सुनने लगा उनकी बात। सारा आश्रम गर्म! इसी एक बात से गर्म था।
सारा आश्रम चिंतित हुआ। इतने सुंदर वचन थे। वचनों में क्या कमी है? मन दर्पण की तरह है, शब्दों की, विचारों की, अनुभवों की धूल जम जाती है। बस इतनी ही तो बात है। साफ कर दो दर्पण, सत्य का प्रतिबिंब फिर बन जाता है। लोगों ने कहा, यह तो बात बिलकुल ठीक है, गुरु जरा जरूरत से ज्यादा कठोर है। पर अब देखें, इससे ऊंची बात कहां से गुरु ले आएंगे। ऐसी बात चलती थी, चार संन्यासी बात करते उस चावल कूटने वाले आदमी के पास से निकले। वह भी सुनने लगा उनकी बात। सारा आश्रम गर्म! इसी एक बात से गर्म था।
सुनी
उनकी बात, वह
हंसने लगा। उनमें से एक ने कहा, तुम हंसते हो! बात क्या
है? उसने
कहा, गुरु
ठीक ही कहते हैं। यह किस नासमझ ने लिखा? वे चारों चौंके।
उन्होंने कहा, तू
बारह साल से चावल ही कूटता रहा, तू भी इतनी हो गया! हम
शास्त्रों से सिर ठोंक—ठोंककर
मर गए। तो तू लिख सकता है इससे बेहतर कोई वचन? उसने कहा, लिखना तो मैं भूल गया, बोल सकता हूं अगर कोई
लिख दे जाकर। लेकिन एक बात खयाल रहे, उत्तराधिकारी होने की
मेरी कोई आकांक्षा नहीं। यह शर्त बता देना कि वचन तो मै बोल देता हूं अगर कोई लिख
भी दे जाकर—मैं
तो लिखूंगा नहीं, क्योंकि
मैं भूल गया, बारह
साल हो गए कुछ लिखा नहीं—उत्तराधिकारी
मुझे होना नहीं है। अगर इस लिखने की वजह से उत्तराधिकारी होना पड़े, तो मैंने कान पकड़े, मुझे लिखवाना भी नहीं।
पर उन्होंने कहा, बोल!
हम लिख देते है जाकर। उसने लिखवाया कि लिख दो जाकर—कैसा दर्पण? कैसी धूल? न कोई दर्पण है, न कोई धूल है, जो इसे जान लेता है, धर्म को उपलब्ध हो जाता
है।
आधी
रात गुरु उसके पास आया और उसने कहा कि अब तू यहां से भाग जा। अन्यथा ये पांच सौ
तुझे मार डालेंगे। यह मेरा चोगा ले, तू मेरा उत्तराधिकारी
बनना चाहे या न बनना चाहे, इससे
कोई सवाल नही, तू
मेरा उत्तराधिकारी है। मगर अब तू यहां से भाग जा। अन्यथा ये बर्दाश्त न करेंगे कि
चावल कूटने वाला और सत्य को उपलब्ध हो गया, और ये सिर कूट—कूटकर मर गए।
जीवन
में कुछ होने की चेष्टा तुम्हें और भी दुर्घटना में ले जाएगी।
तुम चावल ही कूटते रहना, कोई हर्जा नहीं है।
कोई भी सरल सी क्रिया, काफी है।
असली सवाल भीतर जाने का है।
अपने जीवन को ऐसा जमा लो कि बाहर ज्यादा उलझाव न रहे।
थोड़ा—बहुत काम है जरूरी है, कर दिया, फिर भीतर सरक गए।
भीतर सरकना तुम्हारे लिए ज्यादा से ज्यादा रस भरा हो जाए।
बस, जल्दी ही तुम पाओगे दुर्घटना समाप्त हो गयी, अपने को पहचानना शुरू हो गया।
अपने से मुलाकात होने लगी। अपने आमने—सामने पड़ने लगे। अपनी झलक मिलने लगी। कमल खिलने लगेंगे। . . बीज अंकुरित होगा।
तुम चावल ही कूटते रहना, कोई हर्जा नहीं है।
कोई भी सरल सी क्रिया, काफी है।
असली सवाल भीतर जाने का है।
अपने जीवन को ऐसा जमा लो कि बाहर ज्यादा उलझाव न रहे।
थोड़ा—बहुत काम है जरूरी है, कर दिया, फिर भीतर सरक गए।
भीतर सरकना तुम्हारे लिए ज्यादा से ज्यादा रस भरा हो जाए।
बस, जल्दी ही तुम पाओगे दुर्घटना समाप्त हो गयी, अपने को पहचानना शुरू हो गया।
अपने से मुलाकात होने लगी। अपने आमने—सामने पड़ने लगे। अपनी झलक मिलने लगी। कमल खिलने लगेंगे। . . बीज अंकुरित होगा।
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