मानसरोवर
मेट्रो स्टेशन के ठीक बगल में एक बस्ती है लाल बाग। इस जगह जाने से इंडिया और भारत
का फर्क नजर आ जाता है। यह बस्ती तीन भागो में बंटी हुई है,
पहले
भाग में फ्लाईओवर के नीचे राजस्थान का परिवार रहता है,
दूसरे
भाग में यूपी और बिहार के लोग रहते हैं, तीसरे
भाग मे, जो कि
रेलवे और मेट्रो की जमीन पर बसा हुआ है वहां पर यूपी के बराबंकी और फैजाबाद जिले
के बंजारा, जाट,
नट,
समुदाय
के 300 परिवार रहता है।
यह परिवार सड़क से कबाड़ चुनने, ढोल-ताश
बजाने और निंबू मिर्च बेचने का काम करता है। बस्ती में पानी के एक टैंकर से यह 300
परिवार अपनी प्यास बुझाते थे और दूसरे तरह के कामों के लिए बस्ती में स्थित रैन
बसेरा के मोटर के द्वारा निकले पानी पर निर्भर रहते थे।
फ्लाईओवर
के नीचे बसी ंइन 65 झुग्गियों
को 22 अगस्त,
2017 को प्रशासन ने तोड़ दिया था और इस बस्ती को भी तोड़ने
वाले थे तो उन्होंने कोर्ट से स्टे ले लिया। 23
मार्च, 2018 को इस बस्ती में
आग लग गई या लगा दी गयी जिसमें बंजारा, जाट,
नट
समुदायों की 250 के करीब
झुग्गियां जल गई और एक बच्ची कलू (6
साल) पटेल की
पुत्री
की जलकर मृत्यु हो गई। कलू आग लाने पर अपनी जान बचाने के लिए दूसरी तरफ जाकर एक
झुग्गी में छिप गई जिससे कि वह बच सके लेकिन आग ने उसे अपनी चपेट मे ले लिया और
इसके साथ ही एक कुत्ता भी जल गया जो कि उसी घर में छिपा हुआ था। जब हम बस्ती में
शाम को गए तो देखा लोग आग से जले हुए बर्तन को लेकर निकाल कर बोरे में भर रहे हैं
जिसको कबाड़ में बेच कर कुछ पैसा ला सके। बाहर एक टेंट लगा हुआ है जिसमें दिल्ली
सरकार के वालंटीयर लगे हुए हैं और लोगों के लिए खाना बन रहा है। बस्ती के पास दो
और टेन्ट हैं लेकिन उसमें कोई नहीं है। लोग बाहर अपनी जली हुई बस्ती के पास बैठे
हैं क्योंकि टेन्ट में कोई, पंखा
या लाईट नहीं है। बस्ती में एक एम्बुलेन्स आती है और चीत्कार मच जाती है,
बात
करने पर पता चला कि कालू की लाश आई है। मैं लाश को देखने के लिए जाता हूं तो एक
आदमी उसको उठाये हुए दफनाने के लिए ले जाता है जिसके पीछे कुछ लोग हैं। मैं उस लाश
को देखकर हतप्रभ हो गया कि यह छह साल की बच्ची है या छह माह का?
मैंने
लोगों से बात किया तो लोगो ने बताया कि जलने के कारण वह इतना छोटी लग रही है।
शेरा
(20 साल) बताते हैं
कि उनके पिता की मृत्यु हो चुकी है, उनका
जन्म सीलमपुर के झुग्गी में हुआ था जब वह गोद में थे तो इस जगह (लाल बाग) पर
सीलमपुर से आए थे और यहीं पर जवान हुए। शेरा बराबंकी के रहने वाले हैं लेकिन वह
कभी अपने गांव नहीं गए क्योंकि गांव पर कुछ नहीं है। शेरा की मां कबाड़ चुनने का
काम करती है जबकि वह खुद ढोल, ताशा
बजाने का काम करते हैं जो कि अब जल चुका है। शेरा बताते हैं कि उसके सारे दस्तावेज,
पहचान
पत्र, वर्षों से खरीदे
गए कपड़े, बर्तन और
पैसे जल गए हैं जिनको पूरा करने में कई साल लग जाएगा।
वंदना
(18 साल) आठवीं कक्षा
की छात्रा है वह पास के एक सेंटर में ट्यूशन पढ़ने भी जाती है। वंदना की मां,
कबाड़
चुनने का काम करती है जबकि पिता निंबू मिर्च बेचते हैं। वंदना बताती है कि उसके घर
के सभी सामान और उसके कपड़े, किताब-कॉपी
जल गए हैं।
संगीता
(24) कबाड़ चुनने का काम
करती है, उसके पति
ठेला रिक्शा चलाते हैं। संगीता की एक ढाई साल की बेटी है एक लड़का हुआ था जो पैदा
होने के बाद मर गया। संगीता कहती है कि पहले वे लोग सीलमपुर में रहते थे वहां से
उनको भगा दिया गया उनके पास वहां के सभी दस्तावेज थे फिर भी उनको कोई जगह नहीं दी
गई जिसके बाद वह लाल बाग में आकर बस गए। यहां पर उनकी झुग्गी को जलाकर सारे सबूत
को मिटा दिए गए। वह कहती हैं कि-‘‘कोई
सुनवाई ही नहीं कर रहा है कि इनको जगह दिला दें, वह
हमें भगाना चाहते हैं। यहां लोग आते हैं बोलते हैं कि इनको भगा दो इनके पास कोई
सबूत नहीं है’’।
तलिया
कबाड़ा बीनने का काम करती है वह बताती हैं कि आग में सारा सामान उनका जल चुका है
उनका कहना है कि ‘‘आग बुझाने
वाली गाड़ी (फायर बिग्रेड) देर से नहीं आती तो कुछ झुग्गियां बच सकती थी।’’
उसकी
बकरी, ढोल,
ताशा
सब जल गए हैं। तलिया के दो बच्चे अविनाश (11) और
अंजली (12) छठवीं और
सातवीं कक्षा में पढ़ते हैं उनके कॉपी, किताब,
स्कूल
की ड्रेस सभी जल गए।
पप्पी
विधवा है उनके पास दो लड़के और एक लड़की रहते हैं वह बता रही हैं कि उनके गहने जल गए
और उनके 30-40 हजार रू.
जल गए हैं जो कि घर में ही रखे हुए थे। पप्पी को चिंता है कि बारिश होगी तो कहां
छुपेंगें।
सबीर
(45) फैजाबाद के रहने
वाले हैं वह निंबू, मिर्च
बेचने का काम करते थे, परिवार
में 9 सदस्य हैं।
जिसमें से दो बच्चे सीमा, गुल्लू
और वंदना छठीं में पढ़ते हैं। उनकी पत्नी कबाड़ा चुनने का काम करती हैं। वह अपना
बक्शा और समान दिखाते हुए बताते हैं कि हमारा दो लाख का सामान जल गया है।
काजल
बताती है कि रात में भी गर्मी से सो नहीं पाते हैं पहले हमारे पास पंखा होता था तो
आराम से सो लेते थे अब बच्चों को सुलाने के लिए पूरी रात जग कर आंचल से हवा देते
रहते हैं।
अपने
जली हुई झुग्गियों के पास में खड़ी दो बहनें मेना (13) और
गहना (13) सामान
इक्ट्ठा कर रही थी, वह
बताती है कि ‘‘छठवीं
कक्षा में पढ़ती है उन्हें मच्छर लग रहा हैं। हमारे घर के टीवी,
फ्रीज,
15 हजार रू. जल गया, हमारे
पास भी अच्छे अच्छे कपड़े थे लेकिन अभी कुछ नहीं है’’।
गहना बताती हैं कि ‘‘हमारे
स्कूल का खाता था लेकिन हमें पता नहीं था कि सभी जल जाएगा,
नहीं
तो पैसा उसमें रखते थे।
इसी
तरह कि बात बस्ती के हर लोग करते हैं और सभी का यह कहना है कि फायर ब्रिगेड की
गाड़ी देर से आई नहीं होती तो काफी झुग्गियां बच जाती। लोगों ने यह भी आशंका जताया
कि भगाने के लिए झुग्गियों में आग लगाई गई है। ह्मयुमाना इंटरनेशनल नाम के एनजीओ
के एक पदाधिकार ने बताया कि इस बस्ती को मेट्रो के लिए ‘सिक्युरिटी
थ्रेट’ घोषित कर रखा है
और इसे हटाना चाहते थे। उन्होंने यह बताया कि इनके एनजीओ का लाखों रू. का सामान जल
कर खाक हो गया है वह दूसरे संगठनों की मद्द से इन बस्ती वालों के लिए सामान जुटाने
का काम कर रहे हैं।
इस
बस्ती में एक किनारे से आग लगा है जिसमें दूसरे किनारे तक कि सभी झुग्गियां जल कर
राख हो गई। बर्तन और सामान को जलने कि स्थिति देखकर आग कि भयावयता का पता चल रहा
है। इस बस्ती से तीन-चार कि.मी. की दूरी पर फायर बिग्रेड का दो-तीन डिपो हैं लेकिन
वह आने में इतना समय लिया जब तक कि पूरी बस्ती स्वाहा हो गयी। बस्तीवालों के का
आरोप कि जांच होनी चाहिए कि आखिर क्यों देर से फायर बिग्रेड की गाड़ी पहुंची?
जब
इन्हें पहली बार सन् 2000 में
सीलमपुर से उजाड़ा गया तो इन्हें पुनर्वास स्कीम के तहत क्यों नहीं बसाया गया?
बहुत
सारे मेट्रो पिलर के पास बड़े-बड़े मकान बने हुए हैं तो इन बस्ती वालों से मेट्रो के
किस तरह से सिक्युरिटी थ्रेट है? यह
बस्ती 17 साल पुरानी
होने के बाद भी यहां पऱ सुविधाएं क्यों नहीं मुहैय्या कराई गई?
आग
लगने के बाद इन परिवारों को क्यों टेन्ट नहीं दिया गया?
यह
खुले आसमान के नीचे छोटे-छोटे बच्चों के साथ रहने को मजबूर हैं?
इनको
गर्मी से राहत दिलाने के लिए पंखे, लाईट
की व्यवस्था क्यों नहीं कि गई है? सरकार
के मंत्री इनके पास तक पहुंचने में देरी क्यों कर रहे हैं?
‘जहां झुग्गी वहां मकान’
वाली
सरकार इनके लिए अभी तक कोई समुचित व्यवस्था नहीं कि बल्कि खानापूर्ति करने के लिए
कुछ वालंटियर और एक फैशनेबुल टेंट (शादियों वाला) लगा रखी है। ‘स्वच्छता
अभियान’ के
विज्ञापन पर करोड़ो-अरबों खर्च करने वाली सरकार इन स्वच्छताकर्मियों का पुनर्वास
क्यों नहीं कर पा रही है? इस
महादलित के आबादी के लिए अम्बेडकरवादी भी चुप हैं क्योंकि यह उनके वर्गीय चरित्र
में फीट नहीं बैठते हैं। सामाजिक हाशिये पर जीवन व्यतीत करने वालों के लिए कोई
नहीं है?
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