जस्टिस
दिनाकरण, जस्टिस सौमित्र सेन और जस्टिस
वी रामास्वामी पर बेहिसाब भ्रष्टाचार के आरोप लगे थे । सुप्रीम कोर्ट की जांच
समितियों ने इन आरोपों को सही पाया । माननीय सुप्रीम कोर्ट ने इन्हें तबादला मंजूर
करने , छुट्टी पर जाने और इस्तीफ़ा देने आदि के लिए कहा,
जिसे इन सब ने ठेंगा दिखा दिया । फिर भी इन्हें जेल नहीं
भेजा गया । महाभियोग की प्रक्रिया शुरू की गई । दिनाकरण और सेन ने महाभियोग की
प्रक्रिया शुरू होने के पहले इस्तीफ़ा दे दिया और ससम्मान कार्यमुक्त हो गए । रामास्वामी
के ख़िलाफ़ प्रक्रिया चली, लेकिन सदन में प्रस्ताव गिर गया ।
जस्टिस कर्णन के ख़िलाफ़ भ्रष्टाचार का एक भी आरोप नहीं है । उन पर दूसरे जजों के
भ्रष्टाचार को उजागर करने का आरोप है । कर्णन के आरोपों की कोई जांच नहीं की गई । उल्टे
कर्णन की दिमागी हालत की जांच करने के लिए समिति भेज दी गई । कर्णन के मना करने पर
उन्हें छुट्टी पर जाने या इस्तीफ़ा देने के लिए नहीं कहा गया । महाभियोग की
प्रक्रिया नहीं शुरू की गई । जेल भेजने का हुक्म जारी कर दिया गया ।
क्या यह सब
विचित्र लग रहा है ? सिद्ध भ्रष्टाचारियों की ससम्मान
विदाई और भ्रष्टाचार उजागर करने वाले को पागल करार देना, जेल
भेजना ? उसके आदेशों की रिपोर्टिंग तक को बैन कर देना ?
न्यायपालिका की स्वतंत्रता को ख़तरे में डालते हुए जज को हटाने की
संवैधानिक प्रक्रिया तक को किनारे कर देना ?
जस्टिस कर्णन ने शिकायत की है कि दलित होने के कारण उनका उत्पीड़न हो रहा है । यदि इस बात पर यक़ीन नहीं भी किया जाय, लेकिन यह तो पूछिए कि जस्टिस कर्णन ने जिन जजों पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाया था , उन पर लगे आरोपों की जांच कराके , उन आरोपों को झूठा साबित करके , आरोप लगाने वाले जज पर महाभियोग चलाने के संवैधानिक रास्ते को छोड़कर उसे पागलपन की जांच कराने को कहने और जेल भेज देने का तर्क क्या है ???
(This article written by Mr. Pramod Agrawal <pka_ur@yahoo.com. blogger is not taking any responsibility of the content)
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