यह जीवन का सार्वभौमिक सत्य है कि जो भी इस संसार में आया है उसे वापस जाना है अर्थात मृत्यु निश्चित है पर मृत्यु का समय अनिश्चित है. प्रत्येक व्यक्ति को एक न एक दिन मृत्यु प्राप्त होनी ही है चाहे वह इसके लिये तैयार हो या ना हो. दिनांक २ अक्टूबर २०१२ को देश के प्रतिष्ठित समाचार पत्र टाइम्स आफ इंडिया के अनुशार भारत के पुरुषों की औसतन आयु ६४.६ वर्ष है जबकि महिलाओं कि औसतन आयु ६७.७ वर्ष है. इसमें कुछ लोगों को मृत्यु औसत आयु से पहले प्राप्त होना स्वाभाविक है जबकि कुछ लोग इस दिये गये औसत वर्षों से अधिक समय तक जीवित रह सकतें है. इसके साथ-साथ यह तथ्य भी अत्यंत महत्वपूर्ण है कि जिस तरह से इंसान ने तरक्की की है वह सच में ह्रदय से काबिले तारीफ है पर ठीक उसी अनुपात में जोखिम में भी अप्रत्याशित रूप से वृद्धि हुई है. जिसके प्रत्यक्ष प्रमाण आये दिन आतंकवाद कि घटनाएँ, प्राकृतिक आपदाएं एवं एवं टेक्नोलाजी के फेल होने के कारण हुई दुर्घटनाये है जिससे कितने ही लोगों को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा है. साथ ही लोगों के में अपराध कि घटनाये भी अत्यधिक हुई है. आइये जरा गौर करते है कि क्या इस छोटे से जीवन काल के लिये हमें लालच, घूसखोरी, अपराध, झूठ, छलकपट, अत्याचार, बेईमानी, और दुर्व्यवहार करना चाहिये ? क्या जीवन में सफलता पाने के लिये हमें दुसरो को तकलीफ देनी चाहिये ? क्या सिर्फ हमारा एक ही उद्देश्य होना चाहिये कि किसी भी तरह से सफलता, पैसा बनाने का ? वो भी सिर्फ नाश्वर जीवनकाल के लिये ? जरा सोचिये. जहाँ हमारे ग्रन्थ, वेद, कुरान, इस बात की वकालत करते है कि “मनुष्य वही है जो मनुष्य के लिये मरे” वही हम आज इस अवधारणा पर काम कर रहे है कि “मनुष्य वही जो मनुष्य को मारे” लालच, भ्रष्टाचार, बेईमानी, अपराध, बड़े बनने कि चाहत ने हमें इतनी मजूबती से जकड लिया है कि हम सच और झूठ में भी अंतर नही समझ पा रहे है, और क्षणिक लाभ के लिये कुछ भी कर गुजरने से परहेज नही करते. क्या हम इस बात को सोचते है कि हमारे एक झूठ से कितने लोगों पर असर पड़ा होगा, जिस व्यक्ति से हम घूस लेते है वो कहा से पैसा और कैसे लाता है, जब हम अत्याचार करते है तो कितने प्रतिभाओं का समापन हो जाता है ? शायद नही. अवमानवीय कुरुतियो में हम लिप्त होते चले जा रहे है साथ ही हम अपनी अगली पीड़ी को भेट स्वरुप ये चीजे देते चले जा रहे है जिससे उन्हें भी सब सुख सुविधाओं के होते हुए भी मानसिक संतुष्टि नही मिलने वाली. हिंदुओं के प्राचीन ग्रंथो का अवलोकन करें तो उसमे से निकलकर सिर्फ दो बाते सामने आती है और वो है “दुःख दीन्हे दुःख होत है, सुख दीन्हे सुख होय” इसका अगर शाब्दिक अर्थ निकला जाय तो यह स्पष्ट होता है कि आपके किये गये कार्यों से कितने लोग सुख का आनंद उठाते है और कितने लोग दुखी होते है वही परिणाम स्वरुप आपको मिलता है. मतलब कि इंसान अपने भाग्य का खुद विधाता है जिस तरह से कर्म किया जायेगा फल भी उसी तरह से मिलेगा. और यह सिर्फ बाहार के लोगों के साथ किये गये व्यवहार पर लागू नही होता बल्कि अपने घर के प्रत्येक सदस्य के साथ किये गये व्यवहार पर भी लागू होता है. उस समय दुःख अत्यधिक होता है जबकि लोग अपने माँ–बाप पर भी अत्याचार करने से बाज नही आतें जिन्होंने उन्हें जन्म देकर शायद अपराध किया था. जरा सोचिये हम किस दिशा में जा रहें है अगर हम इसी तरह से आगे चलते रहे तो शायद लौट के आना मुश्किल ही नही नामुमकिन हो जायेगा. और यह सब सिर्फ उन चीजों के लिये किया जा रहा है जिसका आपके साथ-साथ चलना भी तय नही है. इस संसार में जो भी चीजे है वो आपको आकर्षित तो कर सकती है पर उनका साथ एक निश्चित सीमा तक ही बना रह सकता है तो क्यों न ऐसी चीजों पे अमल किया जाय जो जीवन के साथ भी रहेगा और जीवन के बाद भी. कुछ इन्ही अवधारणाओं पर महात्मा गाँधी जी ने जो व्यवहार किया था आज उसका उदहारण हम सब लोग लेते है और पूरे संसार में उनकी इसी वजह से पूजा कि जाती है. आइये हम सब मिलकर सिर्फ एक बात का संकल्प जरुर ले कि हम अपने व्यवहार, से ऐसा कुछ नही करेंगे की जिससे किसी को दुःख पहुचे. तभी सही मायने में हमारा जीवन सार्थक हो पायेगा, समाज में एक नई सोच का जन्म भी और यह जीवन रुपी हमारी यात्रा के साथ न्याय भी.
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