“ध्रुवतारा”
(POLE STAR)
"ONLY REAL FRIEND CAN GIVE REAL GUIDANCE"
(This story was written by me in year 2001, based on true incident)
मेरे अभिभावक एक मात्र मेरे बड़े भाई साहब थे । मैंने अपने माँ –बाप को बचपन में ही खो दिया था । शायद इसीलिए भैया व भाभी अपने बच्चों से भी अधिक स्नेह देते थे । अति स्वतंत्रता व प्यार दुलार के ने मुझे चंचल व शरारती बना दिया था । मैंने हाईस्कूल व इंटर किसी तरह तृतीय श्रेणी में पास किया । भाई साहब को मेरे भविष्य की चिंता सताने लगी । वह सोच कि मै ग्रेजुएट होकर भी कहीं तीर मरने वाला नहीं हूँ । अतः उन्होंने मेरे प्रिय मित्र धनंजय के साथ ही श्याम व्यायाम प्रसारण मण्डल लखनऊ भेज दिया । हमें प्रोफेशनल कोर्से बी.पी. आई. करना था ।
यद्यपि धंनजय फर्स्ट क्लास स्कालर था, परन्तु घरेलु आर्थिक स्थिति के कारण वह इस तीन वर्षीय कोर्स करने को बाध्य था । यह न जाने कैसा संयोग था कि एक प्रथम श्रेणी व दूसरा तृतीय का एकेडेमिक कैरियर रखने वाले में अभिन्नता थी ।
तेज तर्राक होने पर भी घर से इतनी दूर आकार सहमा धनंजय के साथ होने से सांत्वना बनी रही । हम दोनों कालेज के राजगुरु छात्रावास में साथ ही रहे । मुझे इस बात का तनिक भी बोध न था कि भैया- भाभी ने मेरा भविष्य बनाने के लिये कितना त्याग कर रहे है जबकि धनंजय को अपनी स्थिति का आभास था । अतः वह सदैव सजग रहता था । पढाई, अनुशाशन, चरित्र, सहयोग सभी में वह आदर्श था । यहाँ पर मेरे भाई साहब कि रिक्तता उसने भरी ।
इस कालेज में तो मुझे एक दूसरी ही दुनिया नजर आयी । स्वतंत्रता का कहीं नामोंनिशान न था । प्रत्येक असेम्बली अटैंड करना अनिवार्य था । किसी भी काम के लिये आज्ञा लेना परम आवश्यक था । कहीं भी विलम्ब या लापरवाही होने पर मूर्ख, नालायक, जानवर का अलंकरण बखूबी मिलता था । अधिक क्रोध में गुरुजन मारपीट भी देते थे । मैंने अनेक बार भाई साहब को लिखा कि कृपया इस जेलखाने से मुझे वापस बुला लें । परन्तु वो वही कहते रहते कि कठिनाइयों के पश्चात ही मीठा फल मिलता है । दूसरी ओर धनंजय ने वातावरण व परिस्थितियों से सामंजस्य बना कर रखा था, अतः वह कहता कि यहाँ अनुशासन व्रत है, उसका पालन करो । कुछ खो कर ही ज्ञान प्राप्त होता है, वह मुझे समझाता ।
कुछ समय बीतने पर मेरी मित्रता मनोज कुलकर्णी से हो गयी । वह शरारती छात्रों का सरदार था । कक्षा में भी उसका प्रभुत्व उसकी दादागिरी से हो गया था । मुझे वह भा गया । स्वभावशील, व्यसनें सख्यमं ? के सिद्धांत से मै उसका प्रमुख मित्र बन गया । मै उसके साथ पान व सिगरेट के अभ्यास को कैम्पस के बाहर या हस्तल में छिपकर बढा रहा था ।
मै और मनोज कालेज के एक-एक कार्यों की कटु आलोचना करते । इसी पर धनंजय से बहस हो जाती । इस विवाद में अक्सर मै तो चुप हो जाता पर धनंजय व मनोज के तर्क आकाश छूने लगते । वातावरण विषाक्त हो उठता । धनंजय कहता की यह हमारा सौभाग्य है कि हम इस कालेज में प्रवेश पा गये है । जितना कुछ सीखा जा सकता है, इन तीन वर्षों में सीख लो वर्ना ऐसा मौका फिर नहीं मिलेगा । काश ! ऐस ही अनुशासन देश के सारे स्कूल, कालेजो में होता तो देश का वर्तमान व भविष्य कुछ दूसरा ही होता । यहाँ के अध्यापको को मै योगी या ऋषि समझता हूँ जो अपना इतना अधिक समय कालेज को देते है । वे अनवरत ठोस रचनात्मक कार्यों में सलग्न रहते है । भारत दर्शन यही होता है । जो कश्मीर से लेकर केरल तथा मणिपुर से राजस्थान तक के छात्र यहाँ है । यहाँ का पारस्परिक स्नेह व सौहार्द दर्शनीय है । प्राचार्य जी को हमारे एक-एक पल की खबर होती है । क्या यह सिद्ध नहीं करता कि वह हमारे सजग, सचेत अभिभावक है ? लड़कियाँ अपने माँ-बाप के घरों में जितनी सुरक्षित नहीं है यहाँ उतनी निश्चिन्तता है । यहाँ मानसिक विकास हेतु योग्य प्राध्यापक व खेलकूद के प्रशिक्षण हेतु विभिन्न खेल के मैदान है । अंत में वे अलग-अलग मुझे समझाते । धनंजय कहता कि आखिर मनोज में कौन सी विशेषताएँ है जिस के कारण तुम उससे चिपके रहते ही ? उनकी संगत से तुम अपने आप को बर्बाद कर लोगे । कुलकर्णी कहता कि धनंजय आर्थोडाक्स है, यदि वह तुम्हारा पुराना सहपाठी व रूम पार्टनर न होता तो अब तक मैंने उसका भरता बना दिया होता । यद्यपि धनंजय ली सलाहें व तर्कों की गंभीरता म्य्झे रुचिकर लगती पर मै मनोज की आलोचना को सहन नहीं कर पाता और मनोज के पक्ष में कुछ विवाद कर बैठता । मेरी अवस्था दुर्योधन द्वारा दिये गये अंतिम समय के उत्तर जैसी थी कि “मै धर्म जानता हूँ पर उसमे मेरी प्रवृत्ति नहीं है । और मै अधर्म को भी जानता हूँ परन्तु उससे मेरी निवृत्ति नहीं है ।“
प्रथम वर्ष ला परिणाम आया । आशानुकूल धनंजय ने ही कक्षा में प्रथम स्थान पाया था । प्रैक्टिकल अंको के कारण मेरा सेकेण्ड क्लास आ गया था । मनोज तृतीय श्रेणी में था । जहाँ मुझे दितीय श्रेणी लाने में प्रसन्नता थी वही धनंजय दुःखी था । बड़े भाव विह्वलन होकर उसने कहा – विजय तुमने मेरी खुशी को कम कर दिया तुम्हे मेरे साथ रहने से ही लाभ क्या हुआ ? मैंने तुम्हे कितना पढाया व अपने नोट्स लिखने को दिये । आशा है आगे तुम ध्यान दोगे । मुझे भी कुछ ग्लानी हुई । मैंने कहा आगे कठिन परिश्रम करूँगा । दितीय वर्ष के लिये पुनः हम साथ रहे परन्तु मेरी सारी ग्लानी व गले – शिकवे, कालेज में मनोज को पाकर काफूर हो गये । मै मनोज के साथ दृढ से दृढतर होता गया । इसी कारण से धनंजय तनाव में रहने लगा । परन्तु मैंने उसकी परवाह नहीं की । अब मुझे धनंजय आर्थोडाक्स दिखने लगा व मनोज कुलकर्णी के बिना कालेज सुना लगने लगा । दितीय वर्ष की परीक्षा समीप आ जाने पर एक बार कक्षा में प्राध्यापक ने मुझसे पूछा - शारीर में कौन सी नलिका शुद्ध रक्त वितरित करती है ? मैंने शीघ्रता में उत्तर दिया – शिराएँ । सभी छात्र हँस पड़े । मै जानता था कि धमनी व शिराएँ ही यह काम करती है, परन्तु निश्चिन्त न होने पर मैंने एक नाम ले दिया था पर अन्य छात्रो के हँसने पर मैंने हडबड़ा कर कहा धमनी ।
कमरे पे आकार आज पहली बार धनंजय ने उग्ररूप से डांटा । तुम्हारे कारण ही मुझे लज्जित होना पड़ा, इसलिए कि तुम मेरे रूममेट हो, मित्र हो । एक ही शहर के हम लोग है । मै अपराधी भाव से सर झुकाए, दूसरी ओर मुँह किये सुनता रहा, लेकिन जैसे ही वह मनोज कि आलोचना करने लगा मुझे चिढ लगने लगी । पता नहीं मनोज जैसे गंदे युवक से तुम्हारी मित्रता कब छूटेगी ? तुम्हे उसका साथ छोडना पड़ेगा । वह कमीना तुमको बर्बाद कर देगा । ऐसा सुनकर गुस्से से मेरी मुट्ठिया मिचने लगी ।
मै आज ही तुम्हारे भाई साहब को पत्र लिखकर तुम्हारी हरकतों की सूचना देता हूँ । उसके इतना कहते ही क्रोध से मेरा हाथ हवा में लहराया और उसके गाल पर जोर की आवाज हुई “तड़” । वह चाहता तो प्रतिक्रिया दे सकता था, पर वह अवाक्, डबडबाई आँखों से मुझे देखता रह गया । मै दरवाजे को धड़ाम से बंद करते हुए निकल आया और निचे मनोज के कमरे में पहुँच गया । मनोज को जब मैंने सारी घटना बताई तो उसने खुशी से मुझे गले लगाते हुए कहा –वेलडन । उसने कहा कि वहाँ रहना ठीक नहीं तुम मेरे पास चले आओ । मै अपना सामान उठाकर मनोज के पास आ गया । धनंजय कुर्सी पर बैठा हुआ दोनों कुहनियों से मेज पर सर टिकाये निर्निमेष मेरे आने जाने को देखता रहा ।
इस घटना के पश्चात मैंने फिर धनंजय को हँसते हुए नहीं देखा । चुपचाप कक्षा में आना जाना मुझे चोरी-चोरी कभी देखना और यदि मेरी दृष्टि मिल जाती तो सामने देखने लगता या निचे देखने लगता । इस घटना को जिसने भी सुना, मुझे दोषी ठहराया सिवाय मनोज ग्रुप के । बात अध्यापको और प्राचार्य तक भी पहुंची थी पर धनंजय ने इसे गप व कल्पित कहकर खण्डित कर दिया । यद्यपि मेरे हृदय की धड़कने तीव्र हो गयी थी पर मैंने समझा की वह मेरे व मनोज के भय से चुप रह गया है । प्रायोगिक परीक्षा के पश्चात उसने एक लड़के से अपने जैसे नोट्स भिजवाये यह कहकर की तुम्हारे लिए भी मैंने लिखे थे ।
परीक्षा हुई हम अलग-अलग अपने घरों को आये । कहाँ तो हम ग्रीष्म अवकाश साथ बिताते थे वहाँ इस बार बोलचाल तक बंद । भैया भाभी ने अनेक बार पूछा – धनंजय नहीं आता?
मैंने बहाना बनाया , बीमार है ।
देखने नहीं गये ?
अक्सर जाता हूँ ।
और सचमुच आठ दिन के पश्चात उसका छोटा भाई आया । बोला भाई साहब बीमार है, आपको बुलाया है । तभी मेरे मन में एक शरारत सूझी । मनोज का पत्र कल ही आया था । मैंने उसके छोटे भाई को देते हुए कहा कि धनंजय को दे देना ।
लगभग पन्द्रह दिनों के पश्चात उसका छोटा भाई पुनः आया – भाई साहब ने आपको बुलाया है व एक पत्र दिया ।
मैंने पूछा – क्या अभी भी बीमार है ? जी हाँ – उसने कहा व चला गया । भाभी समीप ही खड़ी थी । वह नाराज शब्दों में बोली विजय तुम मुझसे भी झूठ बोलने लगे । धनंजय इतने दिनों से बीमार है । तुम देखने तक नहीं गये । लगता है कि कुछ अनबन हो गयी है, पर इतना गुस्सा ठीक नहीं ।
बीमार ही तो है, मर तो नहीं गया । कहकर मै अपने कमरे में चला गया । कमरे में आकार मैंने पत्र खोला ।
प्रिय मित्र विजय,
क्या तुम मुझे क्षमा नहीं कर सकते ? मेरे कितने ही दिन यह सोचकर बिट गये है कि तुम कब आ रहे हो । ईश्वर भी कितना निष्ठुर हो गया है कि मेरे विजय के ह्रदय में मेरे प्रति एक भी कोमलता नहीं भर रहा है । मै विवश हूँ अन्यथा, मै ही पहले आकार मिलता । प्लीज कम सून । मै अस्पताल से लिख रहा हूँ ।
तुम्हारा धनंजय ।
मुझे तरस आ गया । बर्फ के सामान पिघल आया प्यार के वशीभूत शाम को मै अस्पताल पहुँचा । वहाँ कुछ पता न चलने पर धनंजय के घर गया । वातावरण सुना-सुना स्तब्ध था उसकी माँ मुझे देखते ही बिलखने लगी – हाय मेरा दीपक बुझ गया । उसके भाइयो का चीखना चिल्लाना, मै सन्न रह गया । काटो तो खून नहीं उफ़ ! जैसे मुझे किसी ने दहकते हुए अंगारों में फेक दिया हो । उसकी बड़ी बहिन ने रोते हुए बताया अंतिम समय में तीन-चार बार पूछा था – विजय नहीं आया ?
मै सोच नहीं पा रहा था कि उसने यह शब्द किस प्रकार कहें होंगे । अब धनंजय इस दुनिया में नहीं था जो मेरा दोस्त कम गाइड अधिक था । धनंजय की बहन मुझे एक लिफाफा दे गयी ।
मै घर आया रस्ते भर मेरा मन मुझे धिक्कारता रहा । बस आंसू बहते रहे । गघर में कमरे में इतना बिलख कर रोया जितना की बचपन में माँ-बाप के देहावसान में न रोया था । लिफाफा खोला । उसमे धनंजय की मुस्कुराती हुई सरल चेहरे वाली तस्वीर थी । साथ में मनोज का वही पत्र तथा उसका लिखा पत्र –
प्रिय मित्र विजय,
चिर संचित स्नेह । लगता है यह बीमारी मुझे मृत्यु तक पहुंचाकर रहेगी । मै बचूँगा नहीं अतः अंतिम निवेदन है कि मनोज जैसे दुष्ट गन्दी संगति वाले का साथ छोड़ दो वर्ना तुम इंसान नहीं रह जाओगे । अपना मन पढाई में लगाओ । इतना अध्ययन करो तुम्हे प्रथम श्रेणी प्राप्त हो, जिससे तुम्हारा नाम हो । मेरी आत्मा को शांति मिलेगी । मै तुम्हे सच्चे हृदय से प्यार करता रहा हूँ । भले ही तुमको इसका आभास न हो । तुम अच्छे इंसान बनकर नाम रोशन करोगे, यही मेरी अंतिम इच्छा है ।
मुझे क्षमा करना । मनोज का पत्र सुरक्षित भेज रहा हूँ । कहीं तुम नाराज ना हो जाओ मनोज तुम्हारा हम सफर है । मेरे हृदय में तुम्हारे प्रति सदैव ही प्रेम के अतिरिक्त कुछ नहीं रहा । शायद अब तुमसे कभी न मिल पाऊं ।
तुम्हारा अभागा मित्र धनंजय ।
मैंने मनोज का पत्र फाड़ दिया और फफक कर रो पड़ा । जी में आ रहा था कि चीखू चिल्लाऊं । धनंजय अब तुम कहा मिलोगे ? मेरे समीप माफ़ करने को था ही क्या ? पर तुम मुझे कैसे सजा दे गये ? जीवन भर प्रायश्चित करने के अतिरिक्त चारा ही क्या था ?
परिणाम आया । धनंजय ने पुनः प्रथम स्थान पाया था । उसके नोट्स के कारण मै इस बार अच्छी अच्छी दितीय श्रेणी में और मनोज तृतीय श्रेणी में था ।
अब तृतीय वर्ष के लिये मैंने बड़े ही भरी मन से कालेज कि पढाई में जुट गया । कालेज में भी धनंजय के न होने के कारण अत्यंत शोक रहा छात्र व प्राध्यापक अक्सर उसकी चर्चा करते । मुझे प्रतिदिन धनंजय स्मरण आता । वेदनायुक्त मै मन ही मन गुनगुनाता धनंजय ! मैंने तुम्हे माफ कर दिया पर तुम्हारी सजा कितनी कठोर, कितनी महँगी . . . . . . . . यह चुभन, यह मर्म कह्पना भी मुश्किल, सह पाना भी मुश्किल ।
कठिन परिश्रम के पश्चात बी.पी.ई. फाइनल की परीक्षा दिया । मन में भय था कि पता नहीं क्या होगा ? क्योंकि पूरे वर्ष मनःस्थिति अच्छी न रही थी, परन्तु जब अखबार देखा तो विश्वाश करना मुश्किल हो रहा था मेरा नाम मृत में था । मै रो पड़ा क्योंकि देखने-सुनाने वाला धनंजय न था । मुझे उजाला देकर खुद न जाने कहाँ गम हो गया था ? वह मेरा पथ प्रदर्शक –ध्रुवतारा (POLE STAR)
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