जिंदगी एक अनवरत चलने वाली यात्रा है जो प्रत्येक इंसान की मृत्यु पर ही समाप्त होती है | प्रत्येक इंसान यात्राओ के माध्यम से ही अपने मंजिल तक पहुचता है | उन यात्राओ में कभी-कभी कुछ ऐसा घटित हो जाता है जो इंसान के जीवन पे अपनी अमिट छाप छोड़ जाता है | ऐसा कब होगा, कब नही होगा इसका अंदाज लगाना लगभग असंभव होता है | मेरे साथ ऐसा कुछ घटित हुआ जिसे मै जीवन भर भुला नही सकता |

मै रूहेलखंड विश्वविद्यालय बरेली उत्तर प्रदेश से PhD कर रहा था | मै लखनऊ में ही रहता हूँ | चूकी मेरा रिसर्च पूरा हो चूका था और मेरे प्रोफ़ेसर साहब, जो कि बरेली में ही रहते थे, उनके निर्देशानुशार मै ३० जनवरी २०११ को लखनऊ मेल से बरेली अपनी थीसिस मूल्यांकन के लिये विश्वविद्यालय में जमा करने गया | बरेली जाते समय कि यात्रा अत्यंत ही शानदार रही, क्योंकि मै अपने साथ मेरे खास मित्र आनंद मिश्रा जी को साथ लेकर गया था और दूसरा ट्रेन में टिकट भी पहले से आरक्षित करा लिया था | चूकी आने का कुछ निश्चित नही था, क्योकि इस काम में को पूरा करने में अगर कालेज का कोई बाबु न होता तो हमें दो दिन भी लग सकते थे | हम लखनऊ से जा रहे थे इस लिये हमारा उद्देश्य हर हाल में अपनी थीसिस वहाँ जमा करके ही आना था | भले ही हमें दो दिन क्यूं न लग जाते | सुबह २:३० बजे हम बरेली स्टेशन पर पहुचे इधर-उधर निगाह घुमाया तो देखा कि ठण्ड कि वजह से काफी कम लोग दिख रहे है | वहाँ से सीधे हम प्रोफ़ेसर साहब के घर गये और पूरे दिन हम लोग थीसिस को जमा करने के कार्य में लगे रहें | अंत में हम लोग शाम को ६ बजे फ्री हो पाये | प्रोफ़ेसर साहब से आज्ञा लेकर हम लोग सीधे बरेली रेलवे स्टेशन पर आये | ऑटो वाले ने हम लोगों को स्टेशन से १.५ किमी पहले ही छोड़ दिया | जब हम लोगों ने कारण जानना चाहा तो उसने सिर्फ इतना बोला कि कुछ बिबाद हो गया है इस वजह से इसके आगे नही जा सकते |

हम और आनंद मिश्रा जी पैदल ही चल दिये रेलवे स्टेशन को, रास्ते में देखते है तो इतनी भीड़ कि समझ में ही नही आ रहा था कि ऐसा क्या हो गया बरेली में, कि सुबह जहाँ इक्के-दुक्के लोग दिख रहे थे वही शाम को इतनी ज्यादा भीड़ | किसी तरह से हम लोग स्टेशन पहुचे | वहाँ पहुच कर पता किया तो मालूम  हुआ कि ITBP ने ४१६ पदों के लिये लोगों को विज्ञापन के माध्यम से बुलाया था, पर ITBP ने परीक्षा को एक दिन के लिये टाल दिया जिससे अगले दिन और उस दिन के लोगों कि संख्या वहाँ पर एकत्रित हो गयी | स्टेशन पर जिधर देखो लोग ही लोग तील भर के जगह खली नही | चूकी हम लोगों ने सुबह से कुछ खाया नही था थीसिस जमा करने के कार्य में ही इतना व्यस्त थे, तो सोचा कि यही स्टेशन पर ही कुछ खा लेते है | जिस भी दुकानदार के पास जाते वो चीजों के दाम असमान के भाव बताते, जैसे रोटी १० कि एक दल ७० रूपये प्लेट | हम लोगों ने किस तरह एक प्लेट दाल और दो-दो रोटी लेकर अपनी भूख को शांत किया और आपस में बात करने लगे कि यहाँ इतनी भीड़ है जब खड़े होने कि जगह नही मिल रही है तो ट्रेन में अंदर जाने का सोचना भी गुनाह है | हमने आनंद से कहा क्यू न हम लोग बस से चले लखनऊ भले ही किराया थोड़ा ज्यादा लगेगा पर आसानी से हमें बस में बैठने कि जगह तो पा सकते है | हम लोगों कि बात एक सज्जन सुन रहे थे उन्होंने हमसे कहा बेटा वहाँ के हालत तो और बुरे है | छात्रों ने कई बसों में आग लगा दी है और तोड़ फोड़ किया है जिससे बस वालो ने बस ले जाना बंद कर दिया है | चूकी स्थिति इतनी भयावह स्टेशन कि थी कि हम लोग अनुमान लगा सकते थे कि बस स्टैंड का क्या हाल होगा | हम प्रतीक्षा करने लगे कि कोई ट्रेन आये तो हम लोग अगर अंदर जगह न मिले तो ऊपर ही बैठ कर चलेंगे | जब भी कोई ट्रेन आती लोग इस तरह से मिनटों में घूस जाते कि हम लोग सिर्फ आँखे फाड़ कर उने देख रहे थे | मुझे लगा शायद जीवन का अंत यही निश्चित है क्योकि सर घुमाने कि भी जगह नही | बाद में हमें पता चला कि वह लगभग १ लाख से ज्यादे लोग एक साथ एकत्रित हुये थे उस भर्ती के लिये | हम लोगों के सामने से कई ट्रेने गुजर गयी और भीड़ कम होने का नाम ही नही ले रही थी | जब भी कोई ट्रेन अति ऐसा लगता कि भीड़ और बढ़ गयी है |

मेरे मित्र आनंद मिश्रा जी ने हमसे कहा कि अब भगवन ही मालिक है हम लोगों को उसी के भरोसे सब छोड़ कर सिर्फ इन्तजार करना चाहिये | और हम लोगों ने ये निर्धारित किया कि कोई भी ट्रेन चाहे जहाँ जा रही हो पहले हम इस बरेली स्टेशन को छोड़ेगे फिर देखते है कैसे घर पंहुचा जाय | थोड़ी देर में एक ट्रेन आयी और आते ही लोग उसमे घुसने लगे | हम लोग जहा खड़े थे उसी के सामने विकलांग डिब्बा लगा हुआ था हम लोग उसमे घुसने के लिये आगे बड़े ही थे की देखा लोग पहले से ही वहाँ धक्का मुक्की कर रहे है | मै जहा खड़ा था उसी के सामने विकलांग डिब्बे कि आपातकालीन खिडकी खुली हुई थी | मैंने अपना सर अंदर डाल कर यह जानने के कोशिश की कि अंदर कितनी जगह खाली है | इतने में मुझे किसी ने पीछे से उठा कर उस डिब्बे में धकेल दिया जब तक मै सम्हल पाता मेरे ऊपर कई - कई लोग एक साथ गिर चुके थे | शायद यह सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक कि ट्रेन उस स्टेशन से चलना शुरू नही कर दिया | बार-बार मेरे दिमाग में एक ही बात आ रही थी इससे अच्छा तो स्टेशन पर ही था कम से खड़े तो थे | पूरी बोगी में हाय तौबा मची हुई थी | मुझे तो लग रहा था कि प्राण अब निकले की तब | इस उधेड़ बुन में मुझे मेरे मित्र का ख्याल आया मै उनका नाम लेकर जोर जोर से आवाज देने लगा कई बार आवाज देने के बाद भी उनके तरफ़ से कोई उत्तर नही प्राप्त हुआ | हम कब लखनऊ पहुचे और इस बीच हमने क्या-क्या परेशानी उठानी पड़ी उसका हमें कुछ भी याद नही | लखनऊ स्टेशन पर किसी ने मेरे मुह पर पानी डाला तो मुझे होश आया | सामने देखता हु तो दो पुलिस और टी.टी दोनों खड़े है मैंने उनसे पूछा सर यह कौन स स्टेशन है उन लोगों ने जबाब दिया लखनऊ | मै बाहर निकला तो इतने में एक पुलिस वाले ने पूछा बेटा ये तुम्हारा बैग है मैंने अपना बैग उससे ले लिया और अपने मित्र को खोजने लगा, इतने में वो भी सामने दिखे मैंने पूछा कि कहा थे आप | उन्होंने कहा मै भी उसी बोगी में था मैंने उनसे पूछा अगर आप उसी बोगी में थे तो अपको मैंने जब आवाज दी थी तो आप क्यू नही बोलो | उन्होंने कहा आवाज तो मैंने भी आपको दी थी |


बाद में मुझे यह जानकर ताज्जुब हुआ कि ४१६ पदों पर चयन के लिये वहाँ पर एक लाख से अधिक लोग एकत्रित हुये थे, अन्य यात्रियों के अलावा | कभी - कभी आप अपनी लाख कोशिशो के बावजूद दूसरों कि लापरवाहियो का भी शिकार हो सकते है और ऐसे में सिर्फ ईश्वर ही आपकी मदद कर सकता है |

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