संवाददाता रणजीत जीनगर 

सिरोही: भाषाएं पूर्व में अस्तित्व में आयी और तत् पश्चात् उन्हें सुव्यवस्थित करने हेतु व्याकरणशास्त्र की रचना हुई। व्याकरण के प्रकार में गूढ़ है भाषाओं के अत्यंत विशिष्ट प्रयोग जो भावशबलता एवं अर्थगाम्भीर्य से ज्ञानवर्द्धन कर बुद्धि के कालुष्य का हरण तो करते ही हैं साथ ही सुहृदसामाजिकों का पथप्रदर्शन करने में सर्वदा-सर्वथा समर्थ होते हैं। श्रुतिसमानार्थक शब्द 'गुरु और गुरू' को ही देख लिजिए। प्रथम 'गुरु' शब्द का अर्थ शिक्षक,आचार्य दृष्टिगोचर होता है तो द्वितीय गुरू अर्थात् ठक, छलिया या लूटेरा अर्थ स्पष्ट होता हैं। आइए अक्षर ब्रह्म की यात्रा कर परम तत्व गुरु के भावार्थ को हृदयंगम करें।                                               आषाढ़ मास की पूर्णिमा अर्थात् 'गुरु पूर्णिमा' परम सत्ता स्वरूप गुरु तत्व को समझने एवं भवसागर पार उतरने, मोक्ष के मार्ग द्वारा जन्म-मरण के चक्र  से मुक्त होने का महापर्व हैं। 
भारतीय आर्ष परम्परा की दैदीप्यामान भारतीय संस्कृति में 'गुरु' सत्ता को परम तत्व में स्वीकारा गया। वैदिककाल से भारतवर्ष में कोटिश: गुरुकुल रहे जहाँ आर्यों ने गुरु की सेवा में आश्रम के कठोर नियमों का पालन करते हुए श्रेष्ठ  व्यक्तित्व एवं उच्च चारित्रिक गुणों की सृजना की। स्वयं वैकुण्ठाधीष श्रीहरि विष्णु ने धर्म की स्थापनार्थ जब-जब इस धरा पर अवतरण लिया; अस्त्र-शस्त्र संचालन से धर्म, न्याय, वेदान्त आदि दर्शन सह कूटनीति, प्रजापालन इत्यादि समस्त विषयों का गूढ़ ज्ञान इन्हीं पूज्यगुरुदेव के आश्रम में शिक्षाग्रहण एवं ब्रह्मचर्य पालन द्वारा लिया। त्रेता में मर्यादा पुरुषोत्तम रामभद्र ने गुरुवसिष्ठ के आश्रम, द्वापर में योगीराज श्नीकृष्ण का गुरु सान्दीपनी के आश्रम तो पाण्डवो और कौरवों का गुरु द्रौणाचार्य के आश्रम में शिक्षार्जन ऐतिहासिक प्रसिद्ध हैं। कर्ण के गुरु भरद्वाज शिष्य परशुराम, प्राचीन शौनक,अत्रि,विश्वामित्र, अक्षपाद गौतम आदि प्रसिद्ध ऋषि हुए है तो कालान्तर में चाणक्य, महावीर स्वामी, महात्माबुद्ध, स्वामी विरजानन्द, महर्षि दयानन्द, स्वामी श्रद्धानन्द, गुरु तेगबहादुर, अर्जुनदेव, गुरुनानकदेव, गुरु गोविंद सिंह, कबीर, दादूदयाल, रसखान,मीरा, सूरदास, रैदास प्रभृति कोटिश: गुरुदेव हुए।
प्राचीनकाल में शिष्य गुरुकुलों में 'गुरु' की निश्रा में निवास कर ज्ञानार्जन करते थे | घर परिवार से दूर शिष्यों के लिए गुरु ही माता और पिता होते थे | विद्यार्जन,वेदारम्भ संस्कार से समावर्तन संस्कार पर्यन्त गुरु ही शिष्यों के श्रेष्ठ व्यक्तित्व एवं चरित्र निर्माण हेतु सज्ज रहने से माता-पिता से महनीय और प्रथम पूजनीय हो जाते हैं इसीलिए शास्त्र में कहा गया।  _*गुरुर्बह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुर्देवोमहेश्वर: गुरु: साक्षात परब्रह्मा तस्मै श्री गुरवे नमः।।** शिष्य पूरी निष्ठा, मनोयोग से गुरु की सेवा में रत रहते थे। गुरुदेव के उठने से पहले उठना तथा गुरु के शयन अनन्तर शयन करना,आश्रम की साफ-सफाई, गोपालन, गो ग्रास, सुदूर ग्राम से भिक्षाग्रहण करना, नित्य गुरुपद सेवा इत्यादि कर्म करने से गुरु की सत्ता एवं महत्त्व स्वतः प्रामाणित हो जाता हैं। 
शास्त्र में गुरु को परम तत्व माना गया है। उनकी सत्ता एवं साधना रुपी परम तपस्या का सुफल ही है कि सामान्य जन की बुद्धि प्रकाश पाती हैं। वे कुत्सित कर्मों से मुक्त हो परमार्थ के मार्ग पर अनुगमन कर पाते हैं। सांसारिक मोह-माया-राग-द्वेष-काम-क्रोध-मद-मोह इत्यादि समग्र अवगुणों से गुरु ही मुक्त कर सत्कर्म में रत करते है। वे ही ईश्वरीय सत्ता से साक्षात्कार करवाते है। इन्हीं कोटिश गुणों के अवदान से शास्त्र ने इस सत्ता की प्रशंसा में कहा - **अखण्ड मण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरं। तत्पदं येन दर्शितं तस्मै श्री गुरवे नमः।।* ध्यानमूलं गुरुर्मूर्ति पूजामूलं गुरोः पदम् । मंत्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोः कृपा ||त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बंधुश्च सखा त्वमेव । त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देव देव|| ब्रह्मानंदं परम सुखदं केवलं ज्ञानमूर्ति । द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्षयम् || एकं नित्यं विमलं अचलं सर्वधीसाक्षीभूतम् । 
अर्थात गुरु साक्षात ब्रहम् स्वरूप हैं | वे मोक्ष मार्ग को संस्कारित कर जीवन को सफल बनाने वाले हैं | जीवन का परम लक्ष्य संतोष प्रदान करने वाले हैं | वे ही माता और पिता भी हैं | गुरु ही परम तत्व हैं | वे कदाचित् कभी कोई अवतारी पुरुष भी हो सकते हैं किंतु गुरु की सत्ता तो वेदादि रचनाओं की आधारशिला ही रही | श्रृष्टि निर्माण का दिग्दर्शन जिन ऋषियों ने किया वे उनके मंत्र दृष्टा ऋषि हुए और इस प्रकार श्रुति ज्ञान अग्र हस्तांतरित हुआ | महर्षि दयानंद सरस्वती की आर्ष अभिव्यंजना में व्यक्ति पूजा और ढोंग पाखंड का खंडन कालांतर में नवीन दृष्टि उपस्थापित करता हैं साथ ही गुरु पद के महत्व की नवीन विशद व्याख्या भी | योगिराज श्रीकृष्ण निष्काम कर्म उपदेश उन्हें समग्र विश्व का गुरु स्थापित करवाता हैं | श्री कृष्णम् वंदे जगत गुरु:! इसीलिए जिसका कोई गुरु नहीं उनके श्री कृष्ण गुरु होते हैं | सिक्ख धर्म में सबद् ज्ञान गुरु महिमा का अमृत ही हैं | श्री कृष्ण बादरायण पाराशर्य वेद व्यास जिन्होंने महाभारत की रचना की तथा अठारह पुराण लिखे और 18 उपपुराण रचे व वेदों का विभाजन किया उनकी जन्म तिथि को गुरु पूर्णिमा के महापर्व के रूप में मनाते हैं | समग्र शास्त्र का अनुशीलन गुरु की सत्ता को स्वीकार कर अंगीकार करने और उनके उपदेश शिक्षाओं को जीवन में धारण करने पर जोर देती हैं | माता- पिता से अधिक स्नेह गुरु अपने शिष्य से करते हैं | यहीं कारण रहा की गुरु द्रोणाचार्य अर्जुन को अश्वत्थामा से अधिक स्नेह करते थे | सबसे अच्छा, सच्चा हितैषी मित्र भी गुरु ही हैं | वे हमेशा अपने शिष्य को आगे बढ़ते देखना चाहते हैं | तो आईए समाज में रह रहे ऐसे कोटिश आध्यात्मिक उन्नति, राष्ट्रीय चेतना और श्रेष्ठ व्यक्तित्व व चरित्र निर्माण करने वाले गुरुजन का सम्मान करें उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करें और मानव जीवन को सफल बनाएँ | 
बंदौ गुरुपद कंजकृपासिंधु नररूप हरि |
 महा मोहतम् पुंज जासु बचन रविकर निकर || 
आलेखक- खुशवंत कुमार माली

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