राजकुमार गुप्ता
मथुरा। राजनीतिक पार्टियों को ऐसे समर्थक रास आते रहे हैं जो सिर्फ चुनाव चिन्ह देखकर वोट करते आए हैं। राजनीतिक पार्टियां इन्हें अपनी भाषा में खांटी समर्थक बताती हैं।
जातीय समीकरणों के इर्द गिर्द राजनीति की बिसात बिछाने वाले राजनीति के चतुर सुजान इन्हीं खांटी समर्थकों के दम पर दम भरते रहे हैं। राजनीति के जानकारों का कहना है कि इन खांटी समर्थकों की एक समस्या यह भी रही है कि इन्हें बैलेट पेपर या ईवीएम पर अपनी पसंद का चुनाव चिन्ह जरूर दिखना चाहिए। गठबंधन की राजनीति के सबसे ज्यादा पीड़ितों में खांटी कहे जाने वाला समर्थकों का यही वर्ग होता है। देशभर की राजनीति में जातीय समीकरण इस समय हावी हैं। कोई भी राजनीतिक पार्टी किसी भी सीट से किसी भी प्रत्याशी को टिकट दे। उस प्रत्याशी को टिकट मिलने किसी का टिकट कटने, टिकट हासिल करने की दौड़ में किसी के बिछड़ जाने तो किसी के आगे बढ़ जाने के तमाम आंकलन तब तक अधूरे ही रहते हैं जब तक कि उनके जातीय समीकरणों का विस्तार और पूरी तन्मयता से विश्लेषण न कर लिया जाए। राजनीति के जानकार या राजनीति के तमाम तथाकथित विश्लेषकों की रोजी रोटी तो सिर्फ जातीय समीकरणों के प्रस्तुतिकरण और उन्हें उलट पुलट करके दिखाने की क्षमता के दम पर ही चल रही है। इनकी महानता यह है कि ये विश्लेषक हर हाल में अपनी पसंद के अनुसार जातीय समीकरणों का आंकड़ा फिट कर देते हैं, इन्हें इस बात से ज्यादा फर्क नहीं पड़ता कि सच्चाई क्या है? देश में लोकसभा चुनाव चरणबद्ध तरीके से आगे बढ़ रहे हैं। पहले और दूसरे चरण के लिए नामांकन प्रक्रिया पूरी हो चुकी है। पहला और दूसरा चरण पश्चिमी उत्तर प्रदेश की राजनीति में बजूद रखने वाली राजनीतिक पार्टियों के लिए बेहद महत्वपूर्ण माना जा रहा है। वहीं इस दौरान में जहां राजनीतिक दल अपने प्रत्याशियों के समर्थन में जी जान से जुटे हैं वहीं कुछ दल गठबंधन की गठरी में अपने खांटी समर्थकों को समझाने में जुटे हैं। खांटी समर्थक हैं कि कुछ जानने और सुनने को ही तैयार नहीं है। ऐसे खांटी समर्थकों  की नाराजगी के नतीजे से भी नेताजी अनजान नहीं है। ऐस में उन्हें कुछ अतिरिक्त पसीना बहाना पड रहा है और तमाम बहाने भी बनाने पड रहे हैं।

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