बलरामपुर - आर्यवीर दल के तत्त्वावधान में आयोजित नववर्ष स्वागत समारोह के छठवें दिन बिजनौर से पधारे आचार्य विष्णुमित्र वेदार्थी ने सम्बोधित किया कि उपनयन संस्कार विद्याऽध्ययन करने, यज्ञ करने व तीन ऋणों से मुक्त होने की प्रतिज्ञा लेने का संस्कार है।
उन्होंने कहा कि उपनयन संस्कार में मुख्य कर्म यज्ञोपवीत का धारण करना होता है। बालक जब विद्या ग्रहण करने का इच्छुक हो और पढ़ने में भी समर्थ हो जाये तब उसका यज्ञोपवीत संस्कार करा देना चाहिये। यह संस्कार बालक को द्विज बनाने के लिये किया जाता है। जिस मनुष्य को दूसरा जन्म प्राप्त हो जाये उसे द्विज कहते हैं। पहला जन्म बालक को माता पिता से प्राप्त होता है तो दूसरा जन्म उसे आचार्य व विद्या से मिलता है।
वैदिक संस्कृति में उपनयन संस्कार माता पिता के द्वारा मानो यह घोषणा होती है कि हमने बालक को भौतिक जीवन प्रदान करके उसे बाल्यकाल में जो शिक्षा व संस्कार देने सम्भव थे, वे दे दिये हैं परन्तु अब हम अपने बालक को विशेषज्ञ आचार्यों के हाथों में सौंपना चाहते हैं , जिससे कि वह विद्वान् बनकर अपने जीवन के ध्येय धर्म,अर्थ व मोक्ष को प्राप्त हो सके। जिस सुन्दर काल में यह यज्ञोपवीत संस्कार सब स्थानों पर प्रचलित था उस समय में कोई भी मनुष्य अपठित नहीं रह जाता था क्योंकि विद्याभ्यास करने के लिये प्रतीक रूप में लिये गये इस व्रतचिह्न यज्ञोपवीत को धारण करने वाले सभी जन प्रभु के द्वार में किये गये अपने संकल्प के अनुसार बढ़ चढ़कर विद्याऽध्ययन किया करते थे। यज्ञोपवीत धारण करने से समाज को भी यह पता रहता था कि अमुक व्यक्ति विद्याऽध्ययन में संलग्न है और जो यज्ञोपवीत धारण नहीं करता था उसे भी विद्या ग्रहण करने के संकल्पचिह्न यज्ञोपवीत को धारण कराकर विद्या ग्रहण करने की प्रेरणा दी जाती थी।
आचार्य वेदार्थी ने कहा कि बालक को विद्याऽध्ययन करने के लिये आचार्य के समीप ले जाना उपनयन संस्कार कहलाता है । पाठशाला में शिष्य को गुरु के इतना निकट आ जाना चाहिये कि वह गुरु के मन के अनुरूप एकमन वाला हो जाये। ऐसा करने पर वह गुरु के अन्तरतम में बस जाता है, तब उसे अन्तेवासी कहते हैं। यज्ञोपवीत यज्ञ अर्थात् श्रेष्ठतम कर्म की ओर हमारे चल पड़ने का सूचक भी है। यज्ञोपवीत में तीन सूत्र होते हैं , वे सूत्र ऋषिऋण, पितृऋण व देवऋण को स्मरण कराते हुए हमें उन ऋणों से मुक्त होने के लिये किये गये संकल्प के सूचक भी हैं। आचार्य वेदार्थी ने तीन सूत्रों से मिलने वाली प्रेरणा को स्पष्ट करते हुए कहा कि जिस उपासक को ईश्वर का प्रत्यक्ष होने से आन्तरिक दर्शन होता है वह महापुरुष ऋषि है। ऐसे ऋषियों के बनाये हुए शास्त्रों का प्रतिदिन स्वाध्याय करना व उस स्वाध्याय से प्राप्त ज्ञान गंगा का आगे आगे समाज में विस्तार करना यज्ञोपवीत के पहले सूत्र की प्रेरणा है। यज्ञोपवीत का दूसरा सूत्र माता पिता आदि के द्वारा हम पर छोड़े गये पितृऋण की याद कराता है। इस ऋण से मुक्त होने के लिये हमें भी उत्तम सन्तानों का निर्माण व माता पिता आदि की श्रद्धा पूर्वक सेवा शुश्रूषा करनी योग्य है तथा तीसरा सूत्र यज्ञोपवीती को परमेश्वर देवता के ऋण को बताता है। इस ऋण से मुक्ति के लिये जैसे परमात्मा सबका भला चाहता है वैसे हम भी सबका कल्याण और नित्य प्रति ईश्वर की उपासना किया करें। इस प्रकार से यज्ञोपवीत विद्याऽध्ययन, यज्ञ व तीन ऋणों से मुक्त होने के संकल्प का बोधक सूत्र है ।
आर्य भजनोपदेशिका शशि आर्या ने “ मेरे ईश्वर हे जगदीश्वर रचना तुम्हारी कैसी निराली… “ बनायी बातें बहुत वतन की, वतन बनाओ तो हम भी हम भी जानें… . “ जरूरत परिवर्त्तन की घड़ी आत्मिक चिन्तन की है पश्चिम की शिक्षा से दिशा बदली जीवन की है…… “ इत्यादि प्रेरक गीतों से वैदिक दिशा प्रदान की |
यज्ञ के यजमान देवव्रत त्रिपाठी, वृन्दा आर्या, सुनीता मिश्रा, सत्यार्थ, सत्यार्थी, मयंक सिंह ,आरिका सिंह, आर्य व्रत आर्य, मोहिनी आर्या, अरुण कुमार शुक्ला, हरिकांत मिश्रा ,राम फेरन मिश्रा ,मदन गोपाल शास्त्री डा० विष्णु त्रिपाठी, शिवशरण मिश्रा, स्वीकृति त्रिपाठी इत्यादि रहे |
प्रचार मन्त्री आर्यवीर दल उत्तर प्रदेश अशोक तिवारी आर्य ने बताया की यह कार्यक्रम नववर्ष के उपलक्ष्य मे चलता रहेगा।
उमेश चंद्र तिवारी
9129813351
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