जौनपुर। न कापी बदचलन हुई न पेन आवारा हुआ-  आशुतोष त्रिपाठी 

जौनपुर। पेन कॉपी कितने सुलझे हुए से हैं, ख़ुद में भी और सम्बन्धो में भी। ना किसी दूसरे पेन से मुलाकात पर कॉपी बदचलन हुई। ना किसी के ख़ालीपन पन को सहारा देने के लिए पेन आवारा हुआ। दोनों अपनी ज़िम्मेदारियों को बख़ूबी जानते हैं।

जिस दिन पैन अपना आखिरी शब्द लिखेगा अपनी आत्मा गवा देगा और जिस दिन आख़िरी पन्ना कॉपी का भरा जाएगा उस दिन कॉपी भी बन्द कर दी जाएगी।उनके मिलन की सबसे बड़ी दुविधा ये है कि उनका मिलन ही उनके अस्तित्व का अंत है। परन्तु ये उनके निजी अस्तित्व का अंत है, उनके अंत में जन्म है अक्षरों का जो हमेशा रहेगें। वो अक्षर ही उनकी प्रेम की निशानी हैं। वो अक्षर फिर हमेशा विद्यमान रहते हैं , कॉपी में , ज़हन में , मस्तिष्क में , अनंतकाल के लिए।
पर अपने अस्तित्व को गवाने की चिंता ना तो पैन को है और ना ही कॉपी को तो हम भी उदास क्यों हों ? पैन रखे-रखे अपने अस्तित्व को नहीं गवाना चाहता , कॉपी भी समाजी दीमक के हवाले नहीं होना चाहती। 
अच्छा होगा दोनों साथ रहें, जब तक रहें एक दूसरे की शक्तियों को बढ़ाते रहें और एक दिन दोनों एक दूसरे में समा जाएं। ये प्रेम इंसानों को नसीब नहीं , जो हर बार बिछड़जाने की चिंता में अफ़सोस करते रहते हैं। उन्हें इनसे सीखना चाहिए। पैन को कभी अपने अस्तित्व की चिंता नहीं होती , वह शब्द दर शब्द अपनी आत्मा को पन्नो पर न्योछावर किया जाता है। स्याही इस कदर पन्नो पर होती है जैसे पेन पन्नो की गोद में सर रख हमेशा के लिए सो जाना चाहता हो। कितना अच्छा हो जब कॉपी भर जाए तब हम उस पर लिखे जाने वाले पेन को उसी के अंदर रख कॉपी बन्द करदें और रहने दें , दोनों को एक साथ अनंतकाल के लिए मैं रख देता हूं मेरी डायरी में मेरा पेन भी कभी कभी।

लेखक आशुतोष त्रिपाठी

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