_भाग- 1. यात्रा का पहला भाग_
ईशान भेरू की रोमांचक यात्रा पूर्व चलने के बटोही, बाट की पहचान कर ले- हरिवंश राय बच्चन की ये कविता जीवन पथ की गहरी समझ हमें सिखाती है। अनुभव जीवन में सुधार व बेहतर के लिए प्रेरित करते है। इसी क्रम में पिछले वर्ष की आबू यात्रा के खट्टे मिठे अनुभव के साथ इस वर्ष पूरे राजलेश्वर परिवार के साथ ईशान भेरूजी की आनन्दपरक यात्रा की।वैसे मित्रों मैं लम्बी-लम्बी यात्राएं करता रहता हूँ और प्रकृति से जुड़े अपने गहरे अनुभव को आपसे साझा करता रहा हूँ। पूरा राजलेश्वर परिवार सिरोही से तूफ़ान गाडी द्वारा गुरुशिखर पहुँचा। पहुँचा क्या? लपका, झपका और धड़ाम से खुशनुमा बादलों से गले मिलते हुए, आबू के ऊँचे-ऊँचे सदाबहार वनों को निहारते हुए, घुमावदार रास्तों में अपने दिल व बालमन को स्वच्छंद घूमाते हुए आखिर पहुँच ही गया। गाडी में लगती आबूराज व राजलेश्वर बाबा की जयकार सभी को प्रफुलिल्त कर रही थी। केवल अमृत भाई, मेरी और राजेश भाई की यह दूसरी पैदल सैर चोटी की ट्रेकिंग यात्रा थी। बाकि सभी साथी नएं थे जो काफ़ी अति उत्साही थे। गुरुशिखर पहुँचते ही स्वागत को तैयार खड़े थे- बड़े भाई सुरेन्द्र साँखला। एक्जीक्यूटीव के अंतिम समय पर आने के कारण सुरेन्द्र जी यात्रा के सहभागी नहीं बन सकें। जिसका उन्हें व सभी को बहुत मलाल रहा। वे बैंक ऑफ बडोदा आबूपर्वत शाखा के ब्रांच मैनेजर है। पूर्व में सिरोही पदस्थापन के समय काफी़ पर्वतीय पैदल ट्रैकिंग के सहभागी रहे थे। अपने स्वभाव, सहयोग की प्रवृत्ति और मनमौजी मस्तमौलापन के चलते वे सदैव सभी के चहेते ही रहे।
सभी से कुशलक्षेम के बाद फोटोसेशन चालू हुआ जो यात्रा अवसान तक अनवरत रहा। सभी ने सुरेन्द्र जी के साथ खूब फोटो, वीडीयो, सेल्फीयां ली जैसे वह यात्रा का अंतिम पल ही हो। सच है मित्रता निश्चल, नायाब व प्रकृति का अनूठा तौहफ़ा है। मैं स्वयं को बहुत खुशकिस्मत मानता हूँ कि मेरे पास अनेक अच्छे व सच्चे मित्र है। मेरी माला का हर एक मोती अनूठा व बेशकिमती है। इसी के चलते रोज पहाड़ों की छोटी बड़ी यात्राएं होती रही है। आस पास के सारे पहाड़ खोज लिए है लेकिन फिर भी यायावर को विश्राम कहा है।
सुरेंद्रजी से विदा लेकर यात्रा गुरु शिखर के पास से नीचे पथरीले रास्ते से जत्था फोटो, वीडियो बनाते उतरज के लिए आगे बढ़ा। घुमावदार पथरीला रास्ता, भांति भांति की चट्टाने और नए साथियों का अपलक, अचरज भाव से सुंदर दृश्यों को निहारना, सुहाने मौसम में बदलो से खेलते हुए आगे बढ़ना चिर यौवन की प्राप्ति करना ही था। यात्रा में अनेक शेल्फी प्वाइंट तो खूब समा बांद रहे थे। कुछ दूरी तय करते ही कलौंजी स्थानीय भाषा में "करमदे" नाम से एंटी ऑक्सीडेंट से भरपूर फल की झाड़ियां देखते ही अर्जुन भैया, पियूष, बलरामजी, प्रवीण जी, प्रकाश जी, राकेश जी सभी खो गई जैसे कोई सब दुनिया दारी का मोह छुट सा गया हो। थोड़ा आगे बढ़ते ही रसीले आम आबू की प्रसिद्ध केरी ने समा बांधा। सभी केरिया इकट्ठी करने, छांटने चूसने में मस्त हो गए। अब फोन का नेटवर्क कुछ कम हो गया था। शायद मौसम और ऊंचाई दोनो अपना प्रभाव दिखा रही थी। वैसे उतरज में नेटवर्क मिला था जो ईशान भेरूजी की राह में धीरे धीरे कम, आता जाता और शून्य में बदलता रहता है। आनंद की इस आध्यात्मिक यात्रा का प्रथम विश्राम स्थल था श्री श्री १००८ परम पूजनीय संत चंदन गिरी की तपो भूमि केदारनाथ स्थल जहां महाराज श्री की चट्टानों में बनी प्राकृतिक गुफ़ा, अखंड धुना और स्वयं द्वारा जीर्णोधार करवाया गया बाबा केदारनाथ का आकर्षक शिवलिंग युक्त मंदिर है। मंदिर के पीछे है गहरी खाई जहा से आबूगोड के अनेकों गांवो को अपलक निहारा जा सकता है। सुहाने मौसम में दृश्य कुछ ऐसे बन पड़ते है जिनकी शोभा का वर्णन शब्दो में नितांत असंभव है। केदारनाथ शिवलिंग के पास ही है जल का प्राकृतिक कुंड जो कुछ खास गहराई वाला नही है। आस पास कही पानी भी नही चलता है लेकिन स्वच्छ, ठंडे मीठे जल से भरा कुंड जिसमे कितना भी पानी निकालो समाप्त ही नहीं होता। वास्तव में ये संत शिरोमणि की तपस्या का सुफल है, महेंद्र जी के मार्गदर्शन में अर्जुन भैया, राकेश जी, पियूष ने आम की मीठी छाया में नीचे बैठकर कच्ची केरी,हरी मिर्ची, टमाटर आदि को काटकर मसाला तैयार किया। जिसे मेरे द्वारा कुंड से पानी निकालकर पोहा को धो कर गीला किया गया। राणाराम के द्वारा चूल्हा तैयार होते ही कढ़ाई चढ़ाई गई। जिसमे चोंका देकर हींग संग मसाला सेका गया फिर फिर क्या था? पोहा तैयार थे। पूरी भक्त मंडली ने नए साथी महेंद्र जी के निर्देशन में आबू के केदारनाथ का जलाभिषेक किया। मेरी शिव धुन गान को सभी का अच्छा साथ मिला। जिसने पूरे माहौल को भक्तिमय कर दिया। पूजन उपरांत आरती हुई। सभी ने आरती लाभ लिया और निवेद्य अर्पण करके सभी नास्ते की ओर बढे। प्रवीण भैया ने बड़े भाव से सभी को नाश्ता दिया। नाश्ता खतम करते ही यात्रा फिर एक बार उतरज के लिए सभी आगे बढ़ी।बीच में चामुंडा माता मंदिर है वहा पूजन के साथ ग्रुप फोटो लिया और सभी उतरज की ओर बढ़े। गांव का प्रारंभ ही उच्च प्राथमिक विद्यालय से होता है। पीछले वर्ष भी स्कूल देख मेरा मन वही पोस्टिंग का हुआ था। इस बार अर्जुन भैया ने भी वही ज्वाइनिंग का मानस पक्का कर लिया। काफी साथियों ने वहा वीडियो बनाएं और फोटो लिए। पास ही गांव की चौपाल है। सबसे आगे मैं, राणाराम और महेंद्र जी चल रहे थे। सभी को मट्ठे वाली छाछ पिलाने की जिम्मेदारी मेरी थी क्योंकि पिछले वर्ष का अनुभव याद था। यहां वहा दो घर पूछा ताजी छाछ किसी के घर न थी। एक माताजी को बोला वो १०० रुपये में एक घड़ा छाछ ले आई, थोड़ी खट्टी थी; पर सफर की थकान के चलते सभी ने बड़ी तन्मयता से आनंद लेकर पिया जैसे प्यासा पानी पीता है। वही ग्रामीण महिलाओं को पता चला कि दूर से लोग भेरूजी की यात्रा को आए है तो स्वागत में उन्होंने सभी को मीठी केरिया और खजूर दिए। स्वाद लाजवाब था। उन्ही से रास्ता पूछ कर आगे बढ़े आबू के बद्रिकाश्रम की ओर। यह भी अति प्राचीन शिवालय है जहा शिव "प्रभु बद्री" अर्थात विष्णु संग बिराजे है। मंदिर का जीर्णोद्धार केदारनाथ के साथ ही एक ही दिन दो नवंबर 2011 को हुआ है। रास्ते में राजेश भाई बार बार रास्ता जानने और आगे बताने की चेष्ठा कर रहे थे जबकि वास्तविक किसी को जानकारी नहीं थी। क्यूंकि पिछले वर्ष वहा जाना नही हुआ था। दो चार ग्रामीण महिलाये जो खेत में काम कर रही थी। उनसे पूछा रास्ता भी बताया पर एक मत्ता नही बन पा रही थी। फिर अमृत भाई आगे बढ़े और बताए रास्ते को फॉलो करते हुए हम पहुंच गई आबू के बद्रिकाश्रम। अद्भुत शिवालय, वाटिका, अखंड धुना, बावसी की कुटिया सब आकर्षक और साधना को जगाने वाले थे। सभी ने पहले शिव धुन के साथ बाबा का पूजन अर्चन किया। आरती की। नैवेद्य अर्पण के साथ सिद्ध संयासियो के लिए पूर्व में तय की गई समूह की दक्षिणा के अनुसार हम प्रवीण भैया के साथ कुटिया की ओर बढ़े। जहा मुनीजी महाराज जिन्होंने सालों से मौन धारण कर रखा है उनके दर्शन किए। बावसी द्वारा रखे सेवक को प्रवीण जी ने 200 रुपए दक्षिणा दी। केदारनाथ में भी समूह द्वारा तय दक्षिणा 500 दक्षिणा चेतन भारती जी महाराज को दी थी जो पहले ईशान भेरूजी में बिराजते थे अब केदारनाथ में साधनारत है। अमृत तुल्य जल से सभी ने अपने वाटर बॉटल भर दिए। आगे रास्ते में कही पानी नहीं है, बीच में एक जगह रहता था पर पिछले वर्ष कम बारिश के चलते सूक चुका था। आगे के समतल भूमि में पशु चर रहे थे। काफी कंडे देखे सोचा भेरूजी को कंडे पर सीके बाटो का भोग लगाएंगे सो बिना देरी किए प्रकाश भैया, मैं बिनने लग गए। जिसे परवान पर पहुंचाया डॉक्टर साहब, अर्जुन भैया, पियूष और राणाराम ने, अब तक चार थैले कंडे जुट चुके थे तभी महेंद्र जी ने कहा खूब है तब जाकर सभी रुके। यहां तक आबू से ट्रेकिंग करने लोग आते है दो गाइड के साथ एक फैमिली तभी वहा पहुंचे थे। हमने भी सोचा ईशान भेरूजी तक एक स्थानीय साथी साथ ले लेते है। तभी वहा पशु चारा रहे कालू सिंह जी से दल के दो सदस्यों ने बात की। कालू सिंहजी महज 500 रुपए में पांच बजे तक ईशान भेरूजी पहुंचने का बोलकर साथ चल दिए। अब रास्ता थोड़ा कठिन था। ऊंची ऊंची चट्टानों के साथ चढ़ाई जो कभी उतार के साथ तो कभी चढ़ाव के साथ थी। एक एक कर सबके इंजन हाफने लगे थे। सबसे पहले चकनाचूर हुई वागाराम जी कारण भी था थकान के बाद भी रास्ते में आते मीठे आम का अच्छा संग्रह उनके पास हो गया था। पहले से पानी नही है ऐसा प्रचार करने के कारण दो लीटर से जायदा पानी, खाने पीने के समान के साथ कपड़े, बिछाने के बिचोने और ओढ़ने की चद्दर के साथ बैग फूल थे। मानव स्वभाव लालसी है। वैसे केरी सबने इकट्ठी की थी जो जैसे भार लगता थोड़ी थोड़ी विश्राम के साथ कम करके आगे बढ़ते। कालू सिंह जी के लिए सामान्य रास्ता था पर बहुतों के लिए दुष्कर। रास्ते में और रसीले आम और कलौंजी आती जा रही थी। मेरा स्वभाव थोड़ा अलग है। वनस्पति पर पहला अधिकार वन्यजीवो का है ऐसा मानते हुई बस भूख जितनी थी थोड़ा खाया आगे बढ़ गया। वैसे भी कितना भी जोड़ो और जतन करो जीवन में केवल अपने कर्म के सिवा कुछ भी साथ न जाना है।
बीच बीच काफी विश्राम लेते हुए यात्रा आगे बढ़ती गई। यात्रा में यदि लगेज काम हो तो शरीर सुख पाता है इसी यायावरी प्रतिज्ञा वाक्य का अनुसरण के चलते कही कोई परेशानी मुझे नहीं हो रही थी। थोड़ा आगे बढ़ते ही बालाराम जी भी हाफ गए। यात्रा का एक साथी ऐसा भी था जो सदैव बिना जूतों के चलते आए है। धूप हो या छाव हमेशा नंगे पैर हमारे प्रमोदजी भाईसाहब की भक्ति बहुत अनूठी और निराली है। ऐसा भक्त विरला ही होता है। बीच बीच विश्राम कालू सिंहजी तो इतने फुर्तीले थे की पलक झपकते ही ओझल हो जाते थे। फिर आवाज लगता जवाब मिलता आ जाओ आगे की चट्टान पर बैठा हूं। शांतिलाल जी की अगले माह सेवा निवृत्ति है आयु 60 के पास पर ऊर्जा जवानों को भी शर्मिंदा कर दे। तेज गति से चलना। फुर्ती तो देखते ही बन रही थी। मांगीलाल जी भी वरिष्ठ साथी थे पर चलते चल रहे थे।
आगे पानी के प्राकृतिक तालाब के पास सभी ने विश्राम लिया। साथ लाए चने और चिंग का आनंद लिया। पानी मतलैमा था शायद पीने योग्य नहीं पर चरवाहे इसी पानी से अपनी प्यास बुझाते देखे जा सकते है। दल आगे बढ़ा बीच बीच दवानल के अवशेष के रूप में जली हुई काली झाड़ियां दिख रही थी। इस वर्ष आबू में भीषण दावानल हुआ था। काफी वनस्पति की हानि होती है। आगे बढ़ते ही एक बड़ा आम का पेड़ आया जिस पर अनेकों पके मीठे आम थे। सभी ने खूब आम चूछे बाकी कुछ साथियों ने आम बटोरे जिससे उनकी आगे जाकर फिल्म भी पीट गई थी। कोई आम छांट रहा था तो कोई आम की गिनती में व्यस्त, कोई भार तले परेशान होकर अपने आम कम कर रहा था। जैसे तैसे थोड़े आगे बढ़े और पहुंच गई महाराणा प्रताप के युद्ध शस्त्रागार की गुफा पर, विशालकाय गुफ़ा की शोभा देखते ही बनती है। पीछे कटी चट्टान से निकासी आगे दीवार से बंद। सभी ने विश्राम के साथ खूब फोटो वीडियो लिए। कभी महाराणा प्रताप ने खास की रोटी खा कर अपना निर्वासन काल यहां बताया था। उसी स्मृति है आबू का शेरगांव। उनके वंशज के रूप में सिसोदिया गुहिलोत राजपूत आज भी उतरज और शेरगांव में निवास करते है। पास ही चट्टानों के नीचे स्वच्छ जल का सोता था जो लगभग मई के अंतिम तक सुख जाता है। पीछले वर्ष यात्रा के दौरान वहा का मीठा पानी पिया था इस बार बिल्कुल सूख चुका था। कारण भी लाजमी है वर्ष दर वर्ष बारिश की कमी। आबू अपनी प्राकृतिकता और अक्षुणता खोता जा रहा है। कारण जो भी हो विचारणीय है।
थोड़ी घुमावदार पथरीली कुछ उबड़ खाबड़ रास्तों से होकर हम आखिर ईशान भेरूजी के बिल्कुल पास, पग डंडियो में पशुओ का गोबर परेशान कर रहा था जो काफी ताजा था। सबसे आगे कालू सिंह जी थे जो शायद ठेठ भेरूजी के मंदिर में पहुंच गई थे, पीछे राणाराम और उसके पीछे मैं और मेरे साथ पूरा दल। जैसे ही ईशान भेरूजी की पहाड़ी जिसे सैर की पहाड़ी कहते है दिखी। मेरे मुंह से एकाएक जय घोष निकाला "ईशान भेरूजी भगवान की जय" सुनते ही पीछे चल रहे बिखरे बिखरे साथियों में जान आ गई। पर वहा से भी करीब 1 किलोमीटर जितना दूर था। शाम का समय हो चला था लगभग 5 बज गई थी। पीछले वर्ष की तुलना में लगभग पूरे 1 घंटे पहले वैसे योजना चार बजे तक पहुंचने की थी उस हिसाब से देरी थी पर जायदा नही। ईशान मतलब जहा उत्तर और पूर्व का मेल होता हो। दोनो दिशाओं के मेल पर स्थित होने से इन्हें ईशान भेरूजी कहा जाता है। थके पैरो को काफी आराम मिल गया हो जैसे धीरे धीरे तालाब के पास पहुंचे जो भेरूजी का मुख्य आकर्षण भी है। पीछले वर्ष लबालब भरा हुआ था। इस बार काफी कम पानी ने दुखी कर दिया पर बढ़ती मानवीय गतिविधियों के चलते बरिष्का ग्राफ गिरता जा रहा है। शेरगांव की सिंचित तर भूमि इस बार सूखे चारागाह के रूप में नजर आ रही थी। वही विश्राम के बाद आगे बढ़े जो सीधा सीढ़ियों के रास्ते उपर सैर की पहाड़ी पर जाकर रूके। उपर लाइट की व्यवस्था नहीं है। अतः बिना समय गवाएं गुफ़ा के बाहर से दर्शन करते ही सभी ने मोर्चा संभाल लिया। सामान खोल भोजन की तैयारी में व्यस्त हो गए। महेंद्र जी के निर्देशन में मैने आटा लगाया। कोई दाल देख रहा था तो कोई सब्जी में व्यस्त हो गया। कंडो को जलाकर राणाराम, मांगीलाल जी और प्रमोद जी ने बाटे सेकने की तैयारी की। पीयूष, प्रकाश भाई, अर्जुन भाई और वागरामजी ने गोल बाटे बनाए। डॉक्टर साहब कुएं से सींच कर राणाराम के साथपानी लाते रहे। महेंद्रजी ने दाल तैयार की। अब बारी पकोड़े की थी। घोल तैयार कर छोड़ दिया। बाटे सिकने ही वाले थे कि मैंने शांतिलालजी को गुड कूटने को दिया। जिसे उन्होंने बड़ा महीन तो किया पर क्या पता क्या सूझा? जो काजू कूटने लग गए। मैंने पूछा ये क्या कर रहे हो सर? तुरंत बोल पड़े आपने ही तो बोला है काजू कूटने को, मैंने कहा सर यहां चूरमा बना रहे है काजू कतली नही। जिस पर सभी बिना रुकने वाली हसीं हस पड़े। इस पर उन्होंने मेरे उपर क्रोधकर लिया जो थोड़ी देर में शांत भी हो गया। कुछ लोगो को शौच जाने की शिकायत हुई। चले गई। वापस आने पर जब चर्चा हुई मैंने कहा शास्त्र कहता है शौच के बाद स्नान करके धुले वस्त्र पहन कर ही मंदिर में जाना चाहिए वरना पाप लगता है। दिन ढल रहा था रात्रि की छाया बढ़ रही थी। हवा की रफ्तार खूब तेज और ठंडी थी जो धीरे धीरे और ठंड बढ़ा रही थी। मौसम का हाल देख शौच जाने वाले शर्माने लगे और बोल पड़े ऐसा भी कुछ होता होगा? अगर होता ही है तो हम गरम पानी करके नहा लेते है लेकिन सोएंगे मंदिर में ही। मैं समझ गया अगर नहाने का बोला तो बीमार हो जायेंगे और अंदर सोने नहीं दिया तो इनकी बर्फी जम जायेगी। हसीं खुशी आचमन के बाद मैं और महेंद्रजी सुंदरकांड और पूजन आरती में व्यस्त हो गए। तब तक चूरमा तैयार हो गया। भेरूजी को भोग लगाकर साथी प्रसाद लेने लगे। प्रवीण जी ने अपने हाथों से स्वादिष्ट गर्मागर्म पकोड़े निकाले। सभी जीमने लगे। बचे पकोड़े बाद में आए युवा साथियों को बांट दिए और भोजन भी करवाया। रात्रि में सभी को दूध मिल सके ताकि थाकांभी उतर जाए इस लिए राजेश भाई ने शेरगाव से दूध मंगवाया था। दूध गर्म होने तक वागरामजी, मैने और बलरमजी ने भजन बोले। देव स्थान पर सतसंग का अपना ही महत्व है। दूध गर्म हो जाने की खबर मिलते ही धुंध भरे ठंडे मौसम में सभी दूध की ओर बढ़े। किसी ने एक तो किसी ने दो, तीन गिलास गटका दिया। हल्दी एंटीऑक्सीडेंट होती है। काफी आराम मिला। पर रात्रि में किसी के खर्राटे परेशान कर रहे थे तो कोई पैर दर्द से कराह रहा था। इस पर प्रवीण भैया के कान में मच्छर चला गया जिसे बाद में अमृत भाई ने पानी डाल कर निकाला। गुफा में बने इस मंदिर में गर्मी लग रही थी तो बाहर उतना ही ठंड। प्रकृति की माया भी निराली है। इन आह कराह के बीच कब आंख लग गई पता ही न चला जो सुबह पांच बजे खुली। .......
_यात्रा वृतांतकार - खुशवंत कुमार माली_
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