राजकुमार गुप्ता 
वृन्दावन।प्रख्यात संत पण्डित जगन्नाथ प्रसाद भक्तमाली महाराज न केवल ब्रज के अपितु समूचे अध्यात्म जगत के गौरव थे।उनका जन्म सन 1898 ई. में मध्यप्रदेश के गुना जिले के एक छोटे से ग्राम चांचौड़ा में हुआ था।इनकी प्रारंभिक शिक्षा अपने जन्म स्थान चांचौड़ा में संपन्न हुई।उनमें भक्ति के प्रबल संस्कार बचपन से ही थे।अन्य कार्यों को करने के साथ उनकी भक्ति में भी प्रगाढ़ता थी।इनके मौसेरे भाई लक्ष्मीदास जो वृंदावन निवासी थे। कभी-कभी इनको वृंदावन की महिमा एवं कृष्ण चरित्र सुनाते रहते थे।एक दिन दर्शन के लिए लक्ष्मीदास इन्हें वृंदावन ले आये। यहां दर्शन अधिक करने के पश्चात इनके हृदय में गुरु बनाने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई।अत: वे टटीया स्थान के महंत भगवान दास महाराज के पास पहुंचे और उनसे मंत्र दीक्षा प्राप्त की।
भक्तमाली महाराज वृंदावन दर्शन के पश्चात जब वापस जाने लगे तो श्री धाम वृंदावन धाम को प्रणाम करते हुए बोले- हे ! श्रीधाम वृंदावन अब तो ऐसी कृपा करो कि दास को अपनी शरण में रख लो। ऐसा कहकर भक्तमाली महाराज चांचौड़ा चले गए।
श्रीधाम वृंदावन तो कल्प वृक्ष के समान है। यहां जो वस्तु मांगोगे वो निश्चित ही प्राप्त हो जाएगी।अत: कुछ समय पश्चात भक्तमालीजी अपनी पत्नी सहित श्रीधाम वृंदावन आ गए। टटिया स्थान में कई कुंजे हैं।जिनमें से एक ताड़वाली कुंज इन्हें रहने को दे दी।                   
वृंदावन वास करते हुए भक्तमाली महाराज ने श्रीमद्भागवत महापुराण का गहन अध्ययन किया।साथ ही टोपी कुंज के महंत माधव दास ‘भक्तमाली’ से भक्तमाल का अध्ययन किया।इसके साथ ही वे श्रीमद्भागवत व भक्तमाल की कथा सुमधुर कंठ से भाव में डूबकर करने लगे।श्रीभक्तमाल को भक्तमाली महाराज ने अपना इष्ट ग्रंथ माना।प्रभु कथा को उन्होंने अपनी जीविका का साधन नहीं बनाया।बल्कि अपनी साधना का एक परम आवश्यक अंग समझा। 
एक बार भक्तमालीजी अपने घर में बैठे हुए हरमोनियम बजाते हुए भजन गा रहे थे।भाव में डूबकर भजन गाते समय एक बालक उनके सामने आकर बैठ गया और तन्मय होकर भजन सुनने लगा।अचानक भक्तमालीजी की दृष्टि उस बालक पर पड़ी और बालक को देखकर भक्तमालीजी को लगा कि किसी रासधारी का बालक है।भजन सुनने को चला आया है।भक्तमालीजी ने पूछा -लाला आप कहां रहौ ? बालक ने कहा – मैं भतरोड मंदिर में अक्रूर घाट पै रहूँ।  भक्तमालीजी ने पूछा – तुम्हारौ काह नाम है ? बालक ने कहा – मेरौ नाम लड्डू गोपाल है। भक्तमालीजी बोले – लड्डू खाओगे कि पेड़ा?  बालक ने हंसकर कहा – मैं तो पेड़ा खाउँगो।संयोग कि भक्तमालीजी के पास पेड़ा ही थे। लड्डू नहीं थे।भक्तमालीजी ने उठकर पेड़ा लाकर दिए और वह बालक पेड़ा खाता हुआ चल दिया। जाते समय पीछे मुड़कर एक बार देखा और मुस्कुरा कर चला गया।वह जादू भरी मुस्कान और तिरछी चितवन ने भक्तमालीजी के हृदय को घायल कर दिया। पूरी रात भक्तमालीजी सोए नहीं अपितु यही विचार करते रहे, कि ऐसा सुंदर बालक तो कभी देखा नहीं और वह निसंकोच घर के अंदर आकर बैठ गया वह कौन था?
दूसरे दिन प्रातः काल भक्तमालीजी पता लगाने के लिए अक्रूर घाट भतरोड बिहारी मंदिर पहुंचे और मंदिर के पुजारी जी से पूछा – पुजारीजी!  यह लड्डू गोपाल नाम का कोई बालक रहता है क्या ? पुजारीजी बोले- लड्डू गोपाल तो मंदिर के ठाकुरजी का नाम है।और यहां पर कोई बालक नहीं रहता। इतना सुनते ही भक्तमालीजी की आंखों में जल की धारा बहने लगी। आंसू पोछते हुए पुजारीजी से कहा – कल मेरे पास एक बालक आया था। उसने अपना नाम लड्डू गोपाल बताया और निवास भतरोड बिहारी मंदिर। मैंने उसे खाने को पेड़ा दिए और पेड़ा खाकर वह बहुत प्रसन्न हुआ।कही ये सारी लीला आपके ठाकुरजी की तो नहीं थी ? पुजारीजी बोले – भक्तमालीजी ! आप धन्य हैं। हमारे ठाकुर ने ही आप पर कृपा की इसमें कोई संदेह नहीं है।इन्हें पेड़ा बहुत प्रिय है। 
कई दिन से पेड़ा शेष हो गए थे।मैं बाजार नहीं जा पाया था। इसलिए पेड़ों का भोग नहीं लगा सका था।उसकी पूर्ति ठाकुरजी ने आपके पास आकर कर ली।तब भक्तमालीजी ने मंदिर में जा कर लड्डू गोपाल के दर्शन किए और प्रार्थना की, कि ठाकुर ! ऐसे ही कृपा बरसाते रहना।ऐसे पूज्य भगवद प्राप्त संत का सन् 1984 में भगवद भजन करते हुए निकुन्ज गमन हुआ।
सन्त प्रवर पण्डित जगन्नाथ प्रसाद भक्तमाली महाराज जैसी विभूतियां अब विरली ही हैं।उन जैसी पुण्यात्माओं का तो अब युग ही समाप्त होता चला जा रहा है।वे अपने पीछे अपनी सुपुत्री श्रीमती वृन्दावनी शर्मा एवं दौहित्र पण्डित रसिक शर्मा व डॉ. अनूप शर्मा को छोड़ गए हैं।जिन्हें उनके द्वारा अधूरे छोड़े गए कार्यों को पूरा करना है।उनकी पुण्य स्मृति के अवसर पर यदि हम लोग उनके द्वारा बताए गए मार्ग पर चलने का संकल्प लें, तो यह हम सभी की उनके लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

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