राजकुमार गुप्ता
मथुरा।। रंग और उल्लास का पर्व होली मुगल सल्तनत में भी बड़ी ही धूमधाम के साथ मनाई जाती रही है, जो कि सांप्रदायिक सद्भाव एवं राष्ट्रीय एकता की जीती - जागती मिसाल है। मुगल सल्तनत में होली का त्योहार मनाने की परंपरा सम्राट अकबर के शासन काल में प्रारम्भ हुई थी। होली के कई महीनों पूर्व से ही अकबर बादशाह के राजमहल में होली खेलने की तैयारियां प्रारंभ हो जाती थीं। जगह- जगह सोने - चांदी के ड्रम रखे जाते थे, जिनमें कि केवड़े और केसर से मिश्रित टेसू का रंग घोला जाता था। सम्राट अकबर इस रंग को सोने की बड़ी - बड़ी पिचकारियों में भर कर अपनी बेगमों एवं अन्य लोगों के साथ होली खेलते थे। साथ ही वह विभिन्न रंगों से लबालब भरे हौजों में न केवल स्वयं कूदता था अपितु वह इन हौजो में अपनी बेगमों को भी धकेलता था। साथ ही वह सायंकाल अपनी प्रजा के सिर पर स्वयं गुलाल मलता था और उन्हें होली की मुबारबाद देता था। इसके साथ ही वह अपने महल में केवड़े, गुलाब इलायची, केसर, पिस्ता, बादाम आदि से बड़ी ही उम्दा ठंडाई बनवाता था। जो कि सोने के ड्रमों में भरी जाती थी। इस ठंडाई को एवं अन्य अनेक स्वादिष्ट मिठाइयों आदि के साथ महल में आने वाले मेहमानों की जमकर खातिरदारी करता था। इसके साथ ही उसके महल में मुशायरे, कब्बालियों व नाचा - गानों आदि की बड़ी ही जबरदस्त महफिलें जमती थीं। 
सम्राट अकबर का बेटा जहांगीर भी अपने शासन काल में " महफिल - ए होली " का भव्य कार्यक्रम आयोजित करता था। इस उत्सव में सभी लोग बड़े ही जोश - खरोश के साथ होली खेला करते थे। इस अवसर पर दरिद्र से दरिद्र व्यक्ति भी अपने बादशाह के उपर होली खेलने का अधिकार रखता था। बादशाह जहंगीर के दरबार में भी होली का हुड़दंग कई दिनों तक चलता था।
मुगल सल्तनत के सम्राट मोहम्मद शाह रंगीला भी होली के अवसर पर अपने महल में कई दिनों तक होली का त्योहर अत्यंत धूमधाम के साथ मनाया करता था। 
बादशाह शाहजहां होली को "ईद गुलाबी" कहकर पुकारता था।वह इस त्योहार पर अपने राज्य में रंग और गुलाल की बड़ी ही जबरदस्त होली खेलता था। साथ ही वह लोगों पर फूलों की बौछार करता था। फूलों से होली खेलने की परम्परा का यहीं से सूत्रपात हुआ। मुगल सल्तनत के आखिरी बादशाह बहादुर शाह जफर भी होली खेलने के बेहद शौकीन थे। वे अपने हिन्दू बजीरों के माथों पर अपने हाथों से गुलाल लगाते थे। बहादुर शाह जफर के द्वारा लिखी गई होली - "क्यों मो पै मारी रंग की पिचकारी, देखौ कुंवर जी मैं दूंगी गाली।"  एवं अन्य फाग व होलियां इतनी अधिक लोक प्रिय हैं कि वे आज भी हमारे देश के विभिन्न राज्यों में बड़े ही चाव के साथ गाई जाती हैं।
 मुगल सल्तनत के प्रायः सभी बादशाह होली खेलने और उसे देखने के अत्यन्त शौकीन थे।होली के अवसर पर इन राजाओं के किलों के द्वार आम जनता के लिए पूर्णतः खोल दिए जाते थे। जिनमें इन राजाओं की प्रजा पूरी आजादी के साथ अपने राजाओं के साथ जमकर होली खेलती थी। इस मौके पर राजाओं की प्रजा के द्वारा अश्लील गालियों को गाने की भी पूरी छूट थी।मुगल बादशाह अपनी बेगमों, शहजादों और शहजादियों को अलंकार पूर्ण भाषा में गालियां देने वालों को इनाम तक दिया करते थे। जोकर और दरबारी भांड तो होली के मौके पर कुछ भी कहने या गाने के लिए आजाद रहते थे। उनकी भोंडी से भोंड़ी हरकतों से भी आनंद लिया जाता था। 
मुगल शासित दिल्ली का " होली मेला " तो अत्यधिक प्रसिद्ध था।इस मेले में फाग गाने वाले चंग, नफीरी, मुहचंग, ढफली, मृदंग, धमधमी, ढोलक, बीन ,रबाब, तमूरा, ढफ, झींका, करताल एवं तबला आदि बजाकर सरल और अश्लील लोक गीतों को बेहिचक गाते थे। बादशाहगण त्योहारियां बांटते समय नाचने - गाने वालों को अशर्फियां तक लुटा दिया करते थे। होली के रसियों व फाग की मजलिसें हवेलियों व रईसों के दौलतखानों में कई कई दिनों तक चला करती थीं।
उर्दू शायरी में मुगल दरबार की होली को बड़ा ही अहम स्थान हासिल है। 17 वीं शताब्दी में प्रकाशित प्रख्यात शायर क़तील के "हफ़्त तमाशा" नामक फारसी कलाम में होली के हुड़दंग का बड़ा ही सजीव वर्णन है। एक अन्य दक्षिण भारतीय उर्दू शायर कुली कुतुब शाह ने ठेठ हैदराबादी शैली में ब्रज और बुंदेखंड में खेली जाने वाली होली का वर्णन किया है। प्रख्यात शायर फमीज देहलवी ने मुगलई होली और उसकी विशिष्टताओं को अपनी अलंकारिक रचनाओं के जरिए अमर कर दिया है। नवाब  आशफद्दोला के दरबार के सम्मानित उर्दू शायर मीर ने नवाब आशफद्दोला के दरबार में मनाई जाने वाली होली का चित्रण अपने कलाम "जश्न ए - होली" में किया है। ख्वाजा हैदर अली, आतिश, इंशा एवं तावाम आदि शायरों ने भी होली पर खूबसूरत कलामों की रचना की है। सूफी संत हजरत निजामुद्दीन औलाइया अमीर खुसरो, बहादुर शाह जफर , फायज देहलवी, हातिम, मीर,  महजूर, जमीर आदि ने भी उर्दू साहित्य में होली से सम्बन्धित तमाम रचनाएं की हैं।
(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार एवं आध्यात्मिक पत्रकार

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