(अच्छा लगे, तो मीडिया के साथी *बादल सरोज* का यह आलेख ले सकते हैं। सूचित करेंगे या लिंक भेजेंगे, तो खुशी होगी।)

*न धर्मांध कट्टरपंथी सिर्फ काबुल में हैं, न उनके खिलाफ खड़ी मारवा अकेली हैं!!*
*(आलेख : बादल सरोज)*

गुजरे बरस के आख़िरी दिनों का सबसे शानदार फोटो अफ़ग़ानिस्तान की एक 18 साल की युवती मारवा का है।

मक्का की एक पवित्र मानी जाने वाली पहाड़ी के नाम वाली यह मारवा काबुल यूनिवर्सिटी की गेट पर तालिबानी गार्डों के सामने पूरी निडरता और दृढ़ता के साथ एक चट्टान की तरह खड़ी हुयी तालिबानी सरकार द्वारा अफगानी लड़कियों के यूनिवर्सिटी में पढ़ने पर लगाई गई रोक के खिलाफ एकल प्रतिरोध कर रही है। वह अपने हाथ में एक पोस्टर लिए हुए है, जिस पर अरबी भाषा में  "इक़रा" लिखा हुआ है, जिसका मतलब होता है : "पढ़ना" । युवती मारवा पढ़ना चाहती है और अपने जैसी बाकी अफगानी लड़कियों के पढ़ने की गारंटी चाहती है। उसका एहतजाज अफगानिस्तानी हुकूमत की लड़कियों की तालीम पर लगाई गयी रोक के खिलाफ है। ध्यान रहे कि अमरीकी कंधों पर बैठ अफगानिस्तान की हुकूमत में पहुँचे तालिबान ने लड़कियों के सैकंडरी स्कूल्स साल भर से बंद किये हुए हैं। इतना ही नहीं, अभी हाल में लड़कियों के लिए यूनिवर्सिटी प्रतिबंधित कर दी गयी है। इन कट्टरपंथी और धर्मांधों के मुताबिक महिलाओं का पढ़ना गैर-इस्लामी है और पढ़-लिख जाने के बाद लड़कियां अगैरा और वगैरा हो जाती हैं।   

विडंबना की पराकाष्ठा यह है कि यह काम उन्होंने किया है, जिनका नाम ही तालिबान है, तुलबा का बहुवचन,  जिसका मतलब विद्यार्थी/स्टूडेंट होता है। मारवा एक ताजा प्रसंग हैं। दुनिया भर में जहां-जहां कट्टरता का उभार है, वहां-वहां लगभग एक ही जैसी स्थिति है। वर्ष 2012 में पाकिस्तान के खैबर पख्तूनवा प्रांत के स्वात में 15 वर्ष की किशोरी मलाला यूसुफजई के सर में उस वक़्त गोली मार दी गयी थी, जब वह इन्ही तालिबानियों के मना करने के बावजूद स्कूल बस में बैठकर पढ़ने जा रही थी। 

कट्टरपंथी धर्मान्धता यूं तो समूची मनुष्यता के खिलाफ होती है, मगर उसकी पहली शिकार महिला होती है, अपने ही धर्म को मानने वाली महिला की देह में वर्चस्व का झण्डा गाड़कर इसकी विनाश यात्रा शुरू होती है। इसलिए भले तालिबान, इन दिनों, कट्टरपंथी धर्मान्धता के ब्रांड एम्बेसडर हैं ; मगर वे अकेले नहीं हैं।  हर रंग, हर ढंग, हर रूप की कट्टरता और धर्मान्धता की यही रणनीति है। 

धर्मान्धता को सत्ता की सीढ़ी बनाकर हमारी तरफ के कट्टरपंथी जब से हुकूमत में आये हैं, तब से जिस तरह बिना आपातकाल की घोषणा किये हुए ही देश भर में आपातकाल जैसे हालात बनाये हुए हैं, उसी तरह वे शिक्षा और खासतौर से लड़कियों की शिक्षा के खात्मे की मुहिम छेड़े हुए हैं। काबुल वाले तालिबानों की तुलना में इनकी मारकता कुछ ज्यादा बारीक, किन्तु पॉइंटेड है। द्रोणाचार्य से सीखकर इन वालों ने अब एकलव्य के अंगूठे, शम्बूक की गर्दन काटने और गार्गी की जुबान बंद करने की मशीन का आविष्कार कर लिया है। शिक्षा व्यवस्था का निजीकरण और व्यापारीकरण करके उसे जनता के विराट बहुमत की पहुँच से बाहर बनाना इसी तरह का एक तरीका है। शिक्षा हासिल करना महँगा से महँगा करने का असर मध्यमवर्ग के परिवारों पर कुछ इस तरह पड़ता है कि भले कितनी मेधावी क्यों न हों, लडकियां घर बिठा दी जाती हैं। दूसरा तरीका सरकारी स्कूलों की बंदी और कथित विलीनीकरण का है, जिसके तहत पिछले 5 सालों
में कोई डेढ़ लाख से ज्यादा सरकारी स्कूलों का अस्तित्व ही मिटा दिया गया। यह प्रक्रिया अभी भी जारी है।  

काबुल यूनिवर्सिटी के सामने खड़ी मारवा जब एकल प्रतिरोध कर रही थी, तब तालिबानी गार्ड्स उस पर भद्दी और बेहूदी टिप्पणियां कर रहे थे। पढ़ने-लिखने वाली लड़कियों के बारे में इधर वाले कट्टरपंथियों के ताने-तिश्ने उनसे कम जहर बुझे और तीखे नहीं हैं। नताशा नरवाल, सफूरा जरगर, आइशी घोष - नाम और भी हैं- के साथ वे इन्हे आजमा चुके हैं, जेएनयू, जामिया, हैदराबाद और एएमयू यूनिवर्सिटीज की छात्राओं के बारे में कुनबे के ऊपर से नीचे तक के सारे बटुक बार-बार दोहराते रहते  हैं। इसके बावजूद जो लडकियां स्कूल और कॉलेज जा पा रही हैं, उन्हें हताश और निराश करने के लिए हर संभव-असंभव तरीके अपनाये जा रहे हैं। 

कट्टरपंथ की सरहदें नहीं होतीं।  कट्टरपंथियों की भाषा भले अलग हो, उनकी सोच एक समान होती है। उनके आधार भी एक जैसे होते हैं ; कालातीत हो चुकी पुरानी जीर्ण-शीर्ण हो चुकी किताबें, जिन्हे वे सनातन और पवित्र धर्म ग्रंथ मानते हैं और कुछ हजार वर्ष पहले उनमें लिखे-कहे को वर्तमान पर हूबहू लागू कर भविष्य को चौपट करने का बंदोबस्त करते हैं। इन कथित धर्मग्रंथों की मनमानी व्याख्याएं, उनके कभी प्रासंगिक न रहे कथित निर्देशों को, बाकी मामलों में न मानने की सहूलियत का फ़ायदा उठाने वाली ये ताकतें स्त्री के मामले में शब्दशः लागू करती हैं। ये कथित धर्मादेश ईश्वरों, पूजा अर्चना की प्रणालियों और कर्मकांडों में भले एक दूसरे से असहमत, भिन्न और विपरीत हों, महिलाओं के शिकार के मामले में एक ही मचान पर खड़े दिखाई देते हैं। अलग-अलग भाषाओं में एक सी बात बोलते हैं।  एक कहता है कि "महिलाओं को खामोश रहकर अधीनता में रहना सीखना चाहिए। ....पत्नियों को अपने ऊपर पति की पूरी अधीनता कबूल करनी चाहिए, उसे पति के साथ पवित्र बातें भी डरते हुए ही करनी चाहिए  ..... पुरुष ईश्वर की महिमा और शोभा है, जबकि स्त्री पुरुष की शोभा है...  स्त्रियाँ नर्क का द्वार हैं ... वे यदि मर भी जाती हैं तो कोई ख़ास बात नहीं।" वगैरा-वगैरा।  

दूसरा धर्मग्रन्थ कहता है कि महिलाएं हर मामले में पुरुष से कमतर होती हैं। वे पुरुष की दासी होती है और उन्हें पूरी तरह उसकी आज्ञापालक बनकर रहना चाहिए।  उसे घर में ही रहना चाहिए - ज्यादा समझ और जानकारी नहीं रखनी चाहिए, पति को हर तरह से खुश रखना चाहिए। 

इसी तरह की हिदायतों से इधर के भी ग्रन्थ भरे पड़े हैं। "पिता रक्षति कौमारे भरता रक्षित यौवने/रक्षित स्थविरे पुत्रा न स्त्री स्वातन्त्रमर्हति।" की मनुस्मृति की उक्ति "पति चरित्रहीन, लम्पट, निर्गुणी क्यों न हो, स्त्री का कर्तव्य है कि वह देवता की तरह उसकी सेवा करे।" से होते हुए गोलवलकर की प्रस्थापना "शास्त्रों में जिस तरह लिखा है, वैसा ही किया जाना चाहिए - वैवाहिक बलात्कार नाम की कोई चीज नहीं होती - यह पाश्चात्य धारणा है।  समता, बराबरी, लोकतंत्र भी सब पाश्चात्य धारणा है। महिलायें मुख्य रूप से माँ है, उनका काम बच्चों को जन्म देना, पालना पोसना, संस्कार देना है" तक जा पहुंचती है।  

अमरीका और विकसित देशों ने मलाला को नोबल पुरूस्कार दिया और बाद में उन्हीं तालिबानियों को अफगानिस्तान की सत्ता सौंप दी।  साम्राज्यवाद इस तरह के अधम और पाशविक सोच की तख्तों को हमेशा पालता-पोसता रहा है। जिन तालिबानों ने अफगानिस्तान को अपना अड्डा बनाया हुआ है, उन्हें ओसामा बिन लादेन की रहनुमाई में 1992 में यही अमरीका था, जो अपनी गोद में बिठाकर वहां लेकर गया, ताकि सदियों से सोये से पड़े देश को जगाने वाली नजीबुल्लाह की वामपंथी हुकूमत को उलटा जा सके। इस बार भी इन तालिबानों की ताजपोशी अमरीका ही करके आया है। धर्मान्ध कट्टरता और बर्बर पूँजी की यह सांठगांठ नई नहीं है। 

मगर धर्मान्धता पर आधारित इस तरह के कट्टरपंथ के खिलाफ समाज में हमेशा प्रतिरोध भी उभरते रहे हैं।  दुनिया भर की स्त्रियों ने भी उन प्रतिरोधों में हिस्सेदारी की है, अगुआई भी की है। इसलिए मारवा की लड़ाई दुनिया की लड़कियों की लड़ाई है। इन कट्टरपंथियों के मुकाबले पोस्टर लेकर खड़ी मारवा भी बिल्कुल नही डरी थी। उल्टे पहले से निडर हुई थी। खुद उसके शब्द थे कि : "अपने जीवन मे पहली बार मैंने अपने भीतर इतना गर्व, इतनी मजबूती और इतनी ताकत महसूस की है। इसलिए कि मैं बिना डरे उनके सामने खड़ी होकर उस अधिकार को मांग रही थी, जो खुदा ने हमे दिया है।" 

अभी अभी सप्ताह भी नहीं हुआ जब भारत में महिला शिक्षा में क्रांतिकारी उभार लाने वाले ऐसे ही एक प्रतिरोध की नायिका सावित्री बाई फुले की 193 वीं जयन्ती मनी  है। इसके तीन दिन पहले एडवा के आव्हान पर देश भर में महिलायें रात हमारी है - क्लेम द नाईट - के अभियान पर निकली और जब यह पंक्तियाँ लिखी जा रही हैं, तब अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति त्रिवेंद्रम में अपने राष्ट्रीय सम्मेलन में इस तरह की कट्टरताओं से मुकाबले के नए मंसूबे बनाएगी। गरज ये कि साजिशों के मुकाबले कोशिशों की कमी नहीं है।  

*(लेखक 'लोकजतन' के संपादक और अखिल भारतीय किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं। संपर्क : 94250-06716)*

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