बलरामपुर//उतरौला///मोहर्रम पर विशेष - *"मुहर्रम" ज़ुल्म अत्याचार के विरुद्ध उठने वाली आवाज़*


उतरौला(बलरामपुर) इस्लामी वर्ष यानी हिजरी सन्‌ के पहले महीने मुहर्रम की आज शुरुआत हो चुकी है !मुहर्रम का शुमार इस्लाम के चार पवित्र महीनों में होता है जिसे अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद ने अल्लाह का महीना कहा है!मुहर्रम के महीने के दसवे दिन को यौमें आशुरा कहा जाता है।यौमे आशुरा का इस्लाम ही नहीं, मानवता के इतिहास में भी महत्वपूर्ण स्थान है।
यह वह दिन है जब सत्य, न्याय, मानवीयता के लिए संघर्षरत हज़रत मुहम्मद साहब के नवासे हुसैन इब्न अली की कर्बला के युद्ध में उनके बहत्तर साथियों के साथ शहादत हुई थी।इमाम हुसैन विश्व इतिहास की ऐसी कुछ महानतम विभूतियों में हैं,जिन्होंने बड़ी सीमित सैन्य क्षमता के बावज़ूद आतंकवादी यज़ीद की विशाल सेना के आगे आत्मसमर्पण कर देने के बजाय लड़ते हुए अपनी और अपने समूचे कुनबे की क़ुर्बानी देना स्वीकार किया था।कर्बला में इंसानियत के दुश्मन यजीद की अथाह सैन्य शक्ति के विरुद्ध हुसैन और उनके थोड़े-से स्वजनों के प्रतीकात्मक प्रतिरोध और आख़िर में उन सबको भूखा-प्यासा रखकर यज़ीद की सेना द्वारा उनकी बर्बर हत्या के किस्से और मर्सिया पढ़ और सुनकर मुस्लिमों की ही नहीं,हर संवेदनशील व्यक्ति की आंखें नम हो जाती हैं 
मनुष्यता और न्याय के हित में अपना सब कुछ लुटाकर कर्बला में हुसैन ने जिस अदम्य साहस की रोशनी फैलाई,वह सदियों से न्याय और उच्च जीवन मूल्यों की रक्षा के लिए लड़ रहे लोगों की राह रौशन करती आ रही है
इमाम हुसैन का वह बलिदान दुनिया भर के मुसलमानों के लिए ही नहीं,संपूर्ण मानवता के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं।इमाम हुसैन महज़ मुसलमानों के नहीं,हम सबके हैं।यही वज़ह है कि यजीद के साथ जंग में लाहौर के ब्राह्मण रहब दत्त के सात बेटों ने भी शहादत दी थी,जिनके वंशज ख़ुद को गर्व से हुसैनी ब्राह्मण कहते हैं।
इस्लाम के प्रसार के बारे में पूछे गए एक सवाल के ज़वाब में एक बार महात्मा गांधी ने कहा था - मेरा विश्वास है कि इस्लाम का विस्तार उसके अनुयायियों की तलवार के ज़ोर पर नहीं,इमाम हुसैन के सर्वोच्च बलिदान की वज़ह से हुआ।
नेल्सन मंडेला ने अपने एक संस्मरण में लिखा है- क़ैद में मैं बीस साल से ज्यादा वक़्त गुज़ार चुका था,एक रात मुझे ख्याल आया कि मैं सरकार की शर्तों को मानकर उसके आगे आत्मसमर्पण कर यातना से मुक्त हो जाऊं, लेकिन तभी मुझे इमाम हुसैन और करबला की याद आई। उनकी याद ने मुझे वह रूहानी ताक़त दी कि मैं उन विपरीत परिस्थितियों में भी स्वतंत्रता के अधिकार के लिए खड़ा रह सका।

लोग सही कहते हैं कि न्याय के पक्ष में संघर्ष करने वाले लोगों की अंतरात्मा में इमाम हुसैन आज भी ज़िन्दा हैं,मगर यजीद भी अभी कहां मरा है ? यजीद अब एक व्यक्ति का नहीं,एक अन्यायी और बर्बर सोच और मानसिकता का नाम है।दुनिया में जहां कहीं भी आतंक,अन्याय,बर्बरता, अपराध और हिंसा है,यजीद वहां-वहां मौज़ूद है।यही वज़ह है कि हुसैन हर दौर में प्रासंगिक हैं। मुहर्रम का महीना उनके मातम में अपने हाथों अपना ही खून बहाने का नहीं,उनके बलिदान से प्रेरणा लेते हुए मनुष्यता, समानता,अमन,न्याय और अधिकार के लिए उठ खड़े होने का अवसर भी है!

    असगर अली
       उतरौला

Post a Comment

If you have any doubts, please let me know

और नया पुराने