युद्ध का व्यापार और अर्थशास्त्र - अनुज अग्रवाल

कितनी दिलचस्प बात है कि दुनिया के अधिकांश तेल व गैस उत्पादक राष्ट्र ईसाई व मुस्लिम हैं।अमेरिका के नेतृत्व में नाटो देश इन देशों को आपस में लड़ाने का खेल खेलते हैं। माल कमाने के लालच में पहले मुस्लिम देश फ़िलिस्तीन, इराक़, कुवैत व अफगानिस्तान बर्बाद किए गए तो अब ईसाई देश यूक्रेन को बर्बाद किया जा रहा है। इस बार रूसी ईसाई ही युक्रेनी ईसाई को मार रहे हैं।रुस को ज़बरदस्ती उकसाकर आक्रामक बना दिया गया है।  युद्ध -युद्ध के इस सोचे समझे खेल में तेल गैस की आपूर्ति गड़बड़ा दी जाती है , जिस कारण माँग -आपूर्ति का चक्र बिगड़ जाता है और गैस व तेल के दाम कुछ ही दिनो में आसमान छूने लगते हैं।भ्रम, भय,हिंसा ब युद्ध के  इस वहशी व पूरे खेल को तेल - गैस उत्पादक देशों के राजनेता, नौकरशाह, अर्थशास्त्री व कारपोरेट घराने बैठ कर तय करते हैं। कितने लोग मारे जाएँगे, कितनी युद्धक सामग्री लगेगी, कितने संसाधन नष्ट होंगे, कितना पुनर्निर्माण में खर्च आएगा और दाम बढ़ने से कितना टर्नओवर बढ़ेगा सब पहले ही अनुमान लगा लिए जाते हैं। क्या बयानबाज़ी करनी है, कितने प्रतिबंध लगाने के नाटक करने हैं सब स्क्रिप्ट पहले से ही लिख ली जाती है। जिंसो के रेट , हथियारों आदि के सौदे , शेयर व वायदा बाज़ार के उतार चढ़ाव आदि से क्या फ़ायदे होंगे। पूरे खेल की रचना अपनी जीडीपी बढ़ाने व निर्भर देशों की आमदनी चूसने के गणित पर आधारित होती है। युद्ध के इस व्यापार में आदमी “मानव संसाधन” होता है जिसका युद्ध में इस्तेमाल कर निबटा दिया जाता है और बाज़ार के चक्र को आगे बढ़ाया जाता है। बाज़ार के इस क्रूर खेल में “मानवाधिकार” और “ ह्यूमनवीइंग” जैसे शब्द बस एक धोखा हैं। 

अनुज अग्रवाल
संपादक, डायलॉग इंडिया
www.dialogueindia.in

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