उतरौला(बलरामपुर) कुओं का संरक्षण न किए जाने के चलते नगर सहित ग्रामीण क्षेत्रों के कुएं पटते चले जा रहे हैं।जिससे भविष्य में आग लगने पर न तो पानी मिल पाता है और न ही मांगलिक कार्यों के लिए कुओं के दर्शन हो पा रहे हैं।
कभी पुण्य की लालसा में राजा महाराजाओं ,सेठ साहूकारों के द्वारा कुओं को इस उद्देश्य से खुदवाया जाता था कि लोगों को पेयजल के अतिरिक्त अग्निकांडों के समय आग बुझाने के लिए पानी पर्याप्त मात्रा में मिल सके इनको पवित्र मानते हुए इन्हे धर्म से जोड़ दिया गया जिससे लोग इनकी देखभाल करते हुए लंबे समय तक इनसे लाभ प्राप्त करते रहें।धर्म के साथ जुड़ने से शादी विवाह के समय दूल्हे के द्वारा कुओं का पूजन करने व उसके फेरे लिए जाने की परंपरा सदियों से चली आ रही है बड़े शहरो और नगरों मे तो काफी संख्या में कुएं अपने आस्तित्व को नहीं बचा सके वहीं कस्बे व ग्रामीण इलाकों में कुएं यदा कदा देखने को मिलते हैं जो धीरे धीरे लोगों के स्वार्थों की भेंट चढ़ते चले जा रहे हैं।
लोग थोड़ी सी जमीन के लिए पूर्वजों की निशानी को मिटा करके उस पर मकान या दुकान आदि का निर्माण करवा लेते हैं।हालत यह है कि बड़े शहरों मे शादी विवाह के मौकों पर लोग बाल्टी में पानी भरकर उसे ही कुंआ मानकर पूजन अर्चन कर फेरे लगाकर अपने रीति रिवाजों को पूरा कर लेते हैं ।कुओं के पटने चलते अब वह दिन दूर नहीं रह गया जब भावी पीढ़ी के बच्चे कुओं का दर्शन करने के लिए चित्रो का सहारा लेगें।सूत्रों के मुताबिक कस्बे में कुएं की संख्या लगभग दो सौ के ऊपर थे जो वर्तमान में काफी संख्या मे कुएं पट चुके हैं बाकी बचे पटने के कगार पर पहुंच करके अपनी बदहाली पर आंसू बहा रहे हैं।
बदलते परिवेश मे कुओं का संरक्षण किए जाने की महती आवश्यकता है जिससे अग्निकांडों,व मांगलिक कार्यों शादी विवाह के समय कुएं आसानी के साथ मिल सके कुओं का संरक्षण करने का सपना तभी साकार हो पायेगा जब लोग अपनी सोच को बदलें और कुओं के संरक्षण की मुहिम चलाकर इस पुनीत कार्य मे अपनी सहभागिता का निर्वहन करें नहीं तो कुएं सिर्फ इतिहास के किताबी पन्नों तक ही सीमित रह जाएगें और भावी पीढ़ी के बच्चे इनके दर्शन को तरसेगें।
असग़र अली
उतरौला
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