दास्तान-ए-हालात : वह बीएचयू से राजनीति शास्त्र में एमए है। वर्ष 2019 में नेट और अगले वर्ष जेआरएफ क्वालिफाई कर लिया। उसने प्रोफेसर बनने की योग्यता हासिल कर ली है बावजूद इसके पुराने दौर की कुर्सियां बुन कर आजीविका चलाने के लिए विवश है।
इन हालत से गुजर रहे शख्स का नाम रवि कुमार है। जन्मांध होने के बाद भी रवि ने हिम्मत नहीं हारी है। उसने पीएचडी के लिए बीते 12 अप्रैल को इंटरव्यू दिया है लेकिन अब तक परिणाम नहीं आया है। वाराणसी के चोलापुर ब्लाक के हाजीपुर गांव निवासी रवि के पिता फूलचंद की उम्र साठ पार हो चुकी है। बीमारी के कारण वह मेहनत-मजदूरी भी नहीं कर पाते। मां सुमित्रा देवी को भी कम दिखाई देता है। उनके चार भाइयों में सबसे बड़ा सूरज विक्षिप्त हैं। तीसरे नंबर का भाई रामदौड़ ने बीए, होटल मैनेजमेंट, आईटीआई के अलावा कौशल प्रशिक्षण केंद्र में कम्प्यूटर की शिक्षा हासिल की। पिछले साल लॉकडाउन में उसकी नौकरी छूटी तो अब तक बेरोजगार है। सबसे छोटा भाई रंजीत ईंट भट्टे पर काम करता है। कुल मिला कर छह सदस्यों वाले परिवार का जिम्मा इन दिनों रवि कुमार के कंधों पर है। रवि नेत्रहीन होते हुए भी सिंगल और डबल कुर्सी की बुनाई डिजाइन के साथ कर लेते हैं। इतना ही नहीं दुर्गाकुंड स्थित हनुमान प्रसाद पोद्दार अंध विद्यालय से इंटर तक पढ़ाई करने के दौरान उसने मोमबत्ती, अगरबत्ती, साबुन और ताड़ का पंखा बनाने की कला भी सीखी। अपनी इन्हीं कलाओं के बल पर उसने अपनी पढ़ाई की और परिवार का पालन पोषण भी कर रहा है।
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